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________________ रोक सकता है। इस कर्मपरतंत्रतासे विहल होनेके कारण मुझको आपका धर्मोपदेश उसी प्रकारसे उद्वेगयुक्त करता था-बहुत ही बुरा मालूम होता था, जिस तरहसे महानिद्राके कारण वेसुध हुए पुरुपको जगानेवाले पुरुपके शब्द बुरे मालूम होते हैं । परन्तु कभी २ बीच २ में आपके उपदेशकी मधुरता, गंभीरता, उदारता (विस्तार) और परिणामकी सुन्दरताका विचार करनेसे आल्हाद भी होता था। नत्र आपने यह कहा है कि, तू असमर्थ है इसलिये हम तुझसे परिग्रहका त्याग नहीं कराते हैं, तब मेरी व्याकुलता और भय नष्ट हुआ है और मैं आपके साम्हने यह सत्र वृतान्त कह सका हूं । अन्यथा जब जब आप उपदेश करते थे, तब तब मेरे चित्तमें अनेक विकल्प उठते थे। उस समय मैं ऐसा चिन्तवन करता था कि, ये स्वयं तो निष्पह हैं-इन्हें किसी प्रकारकी इच्छा नहीं है मुझसे केवल धन विपयादि छुड़ाते हैं। परन्तु जब मैं छोड़ नहीं सकता हूं, तब इनका यह परिश्रम व्यर्थ ही है । उस समय यद्यपि मैं ऐसा चिन्तवन करता था-तो भी भयकी अधिकतासे अपने जीका अभिप्राय प्रगट नहीं कर सकता था । जब मेरी ऐसी हीनशक्ति है, तब मुझे क्या करना चाहिये, इस विषयमें आप ही प्रमाण हैं अर्थात् आप जो कहेंगे मुझे वही मान्य होगा।" इसके पश्चात रसोईपति धर्मबोधकरने उस भिखारीसे पहले कही हुई सब बातें जिनपर कि उसने चित्तकी अस्थिरताके कारण कुछ भी ध्यान नहीं दिया था, फिरसे कहीं। और अपनी 'तीनों औपधियोंका योग्यायोग्य विभाग ( अमुक योग्य वा पात्र है, और अमुक अयोग्य वा अपात्र है, योग्यको देनेसे लाभ होगा, अयोग्यको देनेसे कुछ नहीं होगा; इस प्रकारका वि
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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