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________________ १५७. महान्तमर्थमाश्रित्य यो विधत्ते परिश्रमम् । तत्सिद्धौ तस्य तोपः स्यादसिद्धौ वीरचेष्टितम् ॥ ३ अर्थात् जो पुरुष किसी बड़े कार्यके लिये परिश्रम करता है, उसे दोनों ही प्रकारसे लाभ होता है । कार्य सिद्ध हो जानेपर तो उसे संतोष होता है, और सिद्ध नहीं होनेपर उसकी बहादुरी समझी जाती है । इसलिये इसे फिर जैसे बने तैसे सुन्दर मनोहर वचनोंके द्वारा विश्वास दिलाकर समझाऊं ।" ऐसा गुरुमहाराजने अपने मनमें निश्चय किया । ¡ आगे रसोईघर के स्वामी धर्मवोधकरने उस भिखारीको फिर भी समझाया, कुभोजनके सारे दोष दिखलाये, युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया कि, वह त्यागने योग्य है, तथा वह जो समझता था कि, आगे भी इससे मेरा निर्वाह होगा, उसको गलत व्रतलाया, और अपने खीरके भोजनकी प्रशंसा करके कहा कि, "वह निरन्तर दिया जायगा,' और पहले महाप्रभावशाली अंजन और जलके दानसे जो उसे लाभ हुआ था, उसे प्रगट करके अपनेपर अतिशय विश्वास उत्पन्न कराया । अन्तमें कहा कि "हे भाई! अब अधिक कहने से क्या ? अपने कुत्सित भोजनको फेंक दे और हमारे इस अमृतके समानं परमान्नको ग्रहण कर ।" 1 • धर्माचार्य भी इसी प्रकार सब कुछ करते हैं । वे जीवको समआते हैं कि, धन विषय स्त्री आदि रागद्वेषादिके कारण हैं, बतलाते हैं कि वे कर्म संचय करनेके हेतु हैं, प्रगट करते हैं कि दुरन्त “ ( दुःखसे: जिसका अन्त हों) और अनन्त संसारके निमित्तभूत हैं, और कहते हैं कि, "हे भद्र इन धनविषयादिकों का क्लेशसे उपार्जन होता, है, क्लेशसे ही अनुभवन होता है और आगामी कालमें भी 28
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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