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________________ १५६ " अहो ! इस जीवका महामोह एक अपूर्व ही प्रकारका है कि जिसके कारण यह रागादि भाव रोगोंकी वृद्धि करनेवाले और अनन्त दुःखोंके कारणरूप धनादि विषयोंमें बुद्धिको उलझाकर भगवानके वचनोंको जानता.हुआ भी अजानके समान, जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करता हुआ भी अश्रद्धानीके समान मेरी उपदेश की हुई विरातिको जो कि सारे क्लेशोंका नाश करनेवाली है, नहीं अंगीकार करता है। परन्तु इसमें इस दीनका दोष नहीं है-सब कर्मोंकी लीला है। ये कर्म ही इसके शुभ परिणामोंको विगाड़ देते हैं । अतएव हमें जो कि इसको प्रतिबोधित करनेके लिये-समझानेके लिये प्रवृत हुए हैं 'यह चारित्र ग्रहण नहीं करेगा', ऐसा समझकर. विरक्त नहीं हो जाना चाहिये-प्रयत्न वरावर करते रहना चाहिये । कहा भी है;: अनेकशः कृता कुर्याद्देशना जीवयोग्यताम् । यथा स्वस्थानमाधत्ते शिलायामपि मृद्घटः॥१ यःसंसारगतं जन्तुं वोधयजिनदेशिते। .. ' . धर्मे हितकरस्तस्मान्नान्यो जगति विद्यते ॥ २ • 'अर्थात् अनेक बार दिया हुआ उपदेश जीवमें योग्यता उत्पन्न कर देता है। जैसे मिट्टीका घड़ा वारंवार रक्खे जानेपर शिलाके ऊपर भी अपने ठहरनेका स्थान बना लेता है। जो संसारी प्राणियोंको जिनप्रणीत धर्मका प्रतिबोध करता है, जगत्में उसके समान हितकारी अन्य कोई नहीं है। विरति सबसे उत्कृष्ट धर्म है। यदि वह हमारे द्वारा इस जीवको प्राप्त हो जाय अर्थात् यह चारित्र धारण कर लेवे, तो इस प्रयत्नकी सफलतासे हमें और क्या प्राप्त करना बाकी रहेगा? हम समझेंगे कि, हमने सब कुछ पा लिया। और भी कहा है:
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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