SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ इनका परिपाक क्लेशरूप होता है । अतएव ये सर्वथा छोड़ देनेके योग्य हैं । इसके सिवाय हे भद्र ! तेरा चित्त मोहके कारण विपर्यास भावको प्राप्त हो रहा है, इसलिये तुझे ये धनादि विषय सुन्दर मालूम होते हैं, परन्तु जब तू चारित्ररसका आस्वादन करेगा, तत्र हमारे विना कहे ही इन्हें किंचित् भी नहीं चाहेगा। " को हि सकर्णकोऽमृतं विहाय विपमभिलपति" अर्थात् ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो अमृतको छोड़कर विपकी अभिलापा करेगा ? और हमारे उपदेशसे पाये हुए चारित्र परिणामको जो तू कभी २ प्राप्त होनेके कारण अनिर्वाहक मानता है और धन विषय स्त्री आदिको प्रकृति भावमें रहनेसे तथा सदा होनेसे निर्वाहक मानता है, सो भी मत मान। क्योंकि जो धर्महीन पुरुष हैं, उनके धनादि भी सदा नहीं रहते हैं। और यदि कहीं रहते हों, तो भी बुद्धिमान् पुरुषोंको उनका निर्वाह-. कपना अंगीकार नहीं करना चाहिये । क्योंकि अपथ्य अन्नको चाहे वह सदाकाल रहनेवाला हो, सारे रोगोंको प्रकुपित करनेवाला होनेके कारण निर्वाहक नहीं कह सकते हैं। अतएव सम्पूर्ण अनर्थोके प्रवर्तक धन विषय स्त्री आदिमें निर्वाहकताका ज्ञान अच्छा नहीं है। और यह जीवका स्वभाव भी नहीं है। क्योंकि जीव अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तवीर्य और अनन्तसुखस्वरूप है। जो तत्त्ववेदी अर्थात् यथार्थज्ञानी हैं, वे समझते हैं कि जीवका जो इन धनविषयादिकोंमें स्नेह होता है, वह कर्मरूपी मलसे उत्पन्न हुआ एक प्रकारका विभ्रम वा विभाव है-जीवका स्वभाव नहीं है। चारित्रपरिणाम तबतक कादाचित्क अर्थात् कभी २ होनेवाला है,३ जबतक जीवका वीर्य (पराक्रम) उल्लसित नहीं होता है। परन्तु जब वीर्य प्रगट हो जाता है, तब वह ही निर्वाहक हो सकता.
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy