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________________ १५५ समझ सकते हैं। और ये धनादि पदार्थ तो हम सरीखोंको कालान्तरमें भी प्रसन्न करते हैं, परन्तु आपकी बतलाई हुई विरति तो राधावेधके ' समान दुप्प्राप्य और कठिन है-क्वचित् ही उसकी ' प्राप्ति हो सकती है । इसलिये आपका यह आग्रह हम सरीखोंके लिये तो अयुक्त ही है-हम इसके पात्र नहीं हैं। कहा भी है: महतापि प्रयत्नेन तत्त्वे शिष्टेपि पण्डितैः । प्रकृति यान्ति भूतानि प्रयासस्तषु निष्फलः ॥ अर्थात् पंडितोंके द्वारा बड़े भारी प्रयत्नसे समझाये हुए भी तत्व सुनकर जो जीव प्रकृतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् अपनी प्रकृतिको नहीं छोड़ते हैं-जैसेके तैसे बने रहते हैं, उनके विषयमें परिश्रम करना निष्फल है। ऐसी दशामें भी यदि आपका आग्रह हो और अपना चारित्र देना ही हो, तो मेरे जो ये धनविषयादि हैं इन्हें रहते हुए ही दे दीजिये, अन्यथा जाने दीजिये मुझे आवश्यकता नहीं है।" जीवके इस प्रकार कहनेपर जैसे उस धर्मवोधकरने भिखारीको खीरका भोजन ग्रहण करनेसे विमुख देखकर विचार किया था कि, "अहो ! देखो इस मोहकी सामर्थ्यको जो यह भिखारी अपने सारे रोगोंके करनेवाले बुरे भोजनपर तो लट्ट हो रहा है, और मेरे उत्कृष्ट खारके भोजनका अनादर करता है । परन्तु मैंने तो पहले ही निश्चय कर लिया है कि, इसमें इस वेचारेका नहीं किन्तु इसके चित्तको व्याकुल करनेवाले रोगादिकोंका ही दोप है । इसलिये अब इस बेचारेको फिरसे समझाना चाहिये जिससे यह चित्तको ठिकाने लाकर परमान्नको ग्रहण कर लेवे । क्योंकि इसके खानेसे इसका महान् उपकार होगा। " इसी प्रकारसे धर्मगुरु भी सोचते हैं कि,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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