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________________ १२१ सुन लीजिये। नाप जो नरे इन भोजनको छजाना चाहते हैं, सो यह मुझे प्राणों मे भी प्यारा लगता है। मैं इसे छोड़कर क्षणभर भी नहीं जा सकता हूं। मैंने बड़े भारी कटसे इसे उपार्जन किया है। कालन्तरमें भी मेगा इससे निर्वाह होगा। परन्तु जाप जो भोजन मुझे देते हैं, उसका मैंन्वरूप नहीं जानता हूं। मैं सोचता हूं कि इस एक दिनके निले हुए भोजनसे नेरा कैसे निर्वाह होगा? इस विषयमें और अविक कहनेले क्या? नेश यह निश्चय है कि, इस भोजनको नहीं छोडूंगा । यदि नेरे इस भोजनके रहते हुए नाप अपना भोजन देना उचित सनझते हैं, तो दे बीजिये, नहीं तो मैं उसे बिना लिये ही यहांले चला जाऊंगा। इस कयनकी योजना जीवके विषयने इस प्रकारसे करना चाहिये:___ यह जीव भी कमाती परतंत्रता कारण चारित्रपरिणामके नहीं होनेसे धर्मगुल्के आगे इसी प्रकार कहता है। इस समय इसे यद्यपि गुल्माक्ने विषयमें विवास हो जाता है जोर ज्ञानदशनके होनेसे भली भांति प्रतीति हो जाती है। परन्तु धनादिन जो गहरी नूळ होती है, वह नष्ट नहीं होती है। जब धनगुरु चारित्र ग्रहण कराने हुए उसना (नाता ) त्याग कराते हैं, तत्र यह जीव दीन होकर कहता है कि, "हे भगवन् ! आप जो कुछ कहते हैं वह सब सत्र है, परन्तु आपको मेरी एक प्रार्थना मुन लेना चाहिये। नेरा जाना घनविषयादिनाम अतिशय गाया हुना है, इसलिये ने उन्हें किसी प्रकारसे भी नहीं छोड़ सकता हूं। यह निश्चय सनझिये कि नैं इन्हें मरनेपर छोड़ सलूंगा। जिन्हें (घनादिकाको) मैंने बड़े नारीशसे एकत्र किये हैं, उन्हें एकाएक समयमें केसे छोड़ दूं? . हन सरीखे प्रनाड़ी जापती बालाई हुई विरतिका स्वरूप ही नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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