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________________ यह सुनकर धर्माचार्य महाराजने जीवकी प्रथमावस्याके योग्य जो सम्यग्दर्शनका स्वरूप है, उसको संक्षेपमें कहना प्रारंभ कियाःहे भद्र ! जो रागद्वेषमोहआदि दोपोंसे रहित, अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तवीर्य और अनन्तसुखस्वरूप, और सारे संसारके जीवोपर दया करनेमें तत्पर रहनेवाले सकल-निष्कल रूप परमात्मा हैं, वे ही सधे देव हैं; ऐसी बुद्धिसे उनकी जो भक्ति करना है, तथा उनके ही कहे हुए जो जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आश्रव-बंध-संवर-निर्जरा और मोक्ष ये नव पदार्थ हैं, सो ही सच्चे हैं, ऐसा जो विश्वास होना है, और उन्होंने जिस सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गका प्रतिपादन किया है, उसके अनुसार चलनेवाले मुनि ही वन्दनीय हैं, ऐसी जो बुद्धि है, सो ही सम्यग्दर्शन है। भावार्थ यह है कि, वीतरागदेव, उनके कहे हुए तत्त्व और उनके चारित्रके पालने वाले मुनि, इन तीनोंकी श्रद्धा भक्ति करनेको सामान्य सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य' इन पांच बाहिरी चिन्होंसे जाना जाता है कि, अमुक जीवमें है या नहीं। और इसे जो जीव अंगीकार करता है, वह (सम्यग्दृष्टी जीव ) जीव मात्रसे मित्रता रखता है, अपनेसे जो गुणोंमें अधिक होते हैं, उन्हें देखकर हर्पित होता है, दुखियोंपर करुणा करता है, और जो अपना अविनय वा अनादर करते हैं, उनसे १ परिणामोंकी मलिनता और उज्ज्वलताकी अपेक्षा जीवकी अनेक अवस्थाएं होती है, इसलिये उन अवस्थाओंमें धारण करनेकी योग्यताके अनुसार सम्य-" ग्दर्शन भी निश्चय व्यवहार तथा सामान्य विशेषकी अपेक्षा अनेक प्रकारका होता है । २ स-कल अर्थात् शरीरसहित परमात्मा तीर्थंकरदेव और निष्कल अर्थात् शरीररहित परमात्मा सिद्ध भगवान् । ३ देव गुरु और धर्मकी श्रद्धाको आस्तिक्य कहते हैं।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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