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________________ १४२ चावलोंकी उत्पत्तिका कारणं है, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके पानी वरसनेको चावल वरसना कहते हैं। और स्वभावके भेदोंमें जो साश्रव स्वभाव कहा है, उसे 'पुण्यानुबंधीपुण्यरूप' समझना चाहिये, और जो अनाश्रव कहा है, उसे निर्जरारूप समझना चाहिये। दोनों ही प्रकारके स्वभाव किसी भी प्रकारके उपचारके विना साक्षात् धर्म ही कहलाते हैं । इसी प्रकारसे जीवों में जो समस्त सुंदर विशेषताएं होती हैं, अर्थात् निरोगता, विद्वत्ता ऐश्वर्यता आदि अन्तर होते हैं, उन्हें कार्यमें कारणके उपचारसे धर्म कहते हैं। जैसे यह मेरा शरीर पुराना कर्म है । इस उदाहरणमें यद्यपि पुराने कर्म शरीररूप कार्यके कारण हैं । परन्तु शरीरमें कर्मरूप कारणका आरोप करके उसे कर्म ही कहते हैं। __ यह सुनकर जीव बोला:-हे भगवन् ! धर्मके इन तीन भेर्दोमेंसे पुरुषको कौनसा भेद ग्रहण करना चाहिये? धर्मगुरु-सदनुष्ठान (शुभ आचार) ही उपादेय वा ग्रहण करनेके योग्य है । क्योंकि वह दूसरे दोका भी अर्थात् स्वभाव और कार्यका भी सम्पादन करनेवाला है। जीव-सदनुष्ठानके कितने भेद हैं? धर्मगुरु--हे सौम्य! सदनुष्ठानके दो भेद हैं, एक साधुधर्म ( यतिधर्म वा अनगारधर्म) और दूसरा गृहीधर्म (सागार वा श्रा वकधर्म ) और इन दोनोंका मूल सम्यग्दर्शन है। जीव-हे भगवन् ! आप सम्यग्दर्शनका उपदेश पहले दे चुके हैं, परन्तु उस समय मैंने ध्यान नहीं दिया था। इसलिये अब कहिये कि, उसका क्या स्वरूप है ? १ इसका स्वरूप पृष्ठ ९८ में कहा जा चुका है। -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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