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________________ १४४ मध्यस्थ रहता है । इस तरह मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओंको भाता है। स्थिरता, भगवानके आयतनोंकी सेवा, आगमकुशलता (शास्त्रकी चतुराई), भक्ति, और जिनवाणीकी प्रभावना ये पांच भाव सम्यग्दर्शनको प्रकाशित करते हैं और शंका,' आकांक्षा, विचिकित्सा, पाखंडियोंकी प्रशंसों और स्तुति ये पांच भाव (अतीचार) दूपित करते हैं अर्थात् इनसे सम्यग्दर्शन मलिन होता है । यह व्यवहार सम्यग्दर्शनका स्वरूप है और विशुद्ध सम्यग्दर्शन आत्माका केवल एक परिणाम है, जो दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय उपशम तथा क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है और समस्त कल्याणोंको करता है। भगवान् धर्माचार्यके इस प्रकार कहनेपर इस जीवके हृदयमें भले प्रकार विश्वास हो गया और उस विश्वासके अनुभवसे ही उसके क्लिष्ट कर्मोंका मल नष्ट होकर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो गई। धर्मगुरुने जो इस प्रकार तत्त्वोंमें प्रीति अर्थात् श्रद्धान उत्पन्न कराया,सो वलपूर्वक पिलाये हुए उत्तम तीर्थजलके समान समझना चाहिये। क्योंकि जिस तरह तीर्थजलके पीते ही उस भिखारीका महाउन्माद क्षीण तथा उपशान्त हो गया, उसी प्रकारसे तत्त्वार्थ श्रद्धान के होते ही इस जीवका जो मिथ्यात्वकर्म उदय अवस्थामें था, वह क्षीण हो गया और जो उदयमें नहीं आया था अनुदीर्ण था, उसका उपशम हो गया। परन्तु तो भी प्रदेशानुभवसे उसका अनुभवन होता १ भगवानके कहे हुए तत्त्वोंमें सन्देह करना.। २ इस लोक और परलोकसम्बन्धी भोगोंकी वांछा करना । ३ आनिष्ट पदार्थोंको देखकर ग्लानि करना। ४ मिथ्याष्टियोंके ज्ञानचारित्रादि गुणोंको मनसे प्रगट करना । ५ वचनोंसे प्रगट करना । -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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