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________________ १३६ परन्तु इस वेचारेने उन्हीं अभिप्रायोंको सुन्दर समझ लिया है। अस्तु । तो भी यह जो किसी तरहसे सुननेके लिये तत्पर हो गया है, सो सामान्य वात नहीं है। हमारा परिश्रम सफल हो गया है। और जो इसको प्रतिबोधित करनेका उपायरूप वीजे सोचा गया था, उसमें अंकुर निकल आये हैं। अब यह मार्गपर आ जावेगा। गुरुमहाराज ऐसा मनमें विचार कर कहते हैं कि:--"हे भद्र! जो पदार्थ जिस रूपमें होता है, हम उसे उसी रूपमें वैसाका वैसा प्रकाशित करते हैं। हम कुछका कुछ मिथ्या कहना नहीं जानते हैं। तब यह जीव चित्तमें कुछ विश्वास हो जानेसे कहता है कि, "हे भगवन् आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है।" गुरुमहाराजने कहा, "भद्र ! यदि ऐसा है, तो कहो, अर्थ और कामका माहात्म्य तुम्हारी समझमें आ गया ?" इसने कहा, "हां ! बहुत अच्छी तरहसे !" गुरुमहाराजने कहा, "हे सौम्य ! हमने चारों पुरुषार्थोंके कहनेका उपक्रम किया था, जिनमेंसे दोका स्वरूप कहा जा चुका है। अब तीसरेका स्वरूप कहा जाता है, सो भी तुम्हें एकचित्त होकर सुनना चाहिये।" इसने कहा, "भगवन् ! मैं सावधान हूं, आप कहनेका प्रारंभ कीनिये।" तब आचार्य महाराज कहने लगेः- "हे लोगो ! कोई २ लोग ऐसा मानते हैं कि, धर्म ही सबसे प्रधान पुरुषार्थ है। वे कहते हैं कि, यदि धर्म प्रधान नहीं होता तो जीवपनेसे समान होनेपर भी क्या कारण है कि, कोई पुरुष तो ऐसे कुलोंमें जन्म लेते हैं, जिनमें कुलक्रमसे-अनेक पीढ़ियोंसे धनका संग्रह चला आता है, जो चित्तको अतिशय आनन्दित करनेके स्थान होते हैं, और सारा संसार जिनका सन्मान करता. है, और कोई पुरुष ऐसे कुलोंमें.
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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