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________________ ܐ १२९ उसे नेत्ररोगोंकी पीड़ाके धीरे२ उपशम वा कम होने के समान और ज्ञानके होनेपर जो चित्तमें थोड़ासा संतोष होता है, उसे विस्मित होने के समान समझना चाहिये । और भिखारीकी कथामें जो यह कथन किया है कि, "इतना सब होनेपर भी उस भिखारीका अपनी भीखकी रखवाली करनेका अभिप्राय जो उसे बहुत कालसे अभ्यस्त हो रहा था, सर्वथा नष्ट नहीं हुआ। उसके वशीभूत होकर वह उस पुरुषपर फिर २ कर शंका करने लगा कि, कहीं यह मेरे भीखका भोजन छीन न लेवे, और वहांसे भाग जानेकी इच्छा करने लगा ।" सो मेरे इस जीवके विषयमें भी इस तरहसे घटित होता है कि : - जबतक यह जीव प्रशम (शांति ), संवेग ( संसारसे भयभीतता ), निर्वेद (वैराग्य), अनुकम्पा (दया) और आस्तिक्य लक्षणोंसे युक्त अधिगमन' सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं करता है, तत्र तक व्यवहारसे श्रुतमात्रकी प्राप्ति होनेपर भी बहुत थोड़ासा विवेक होनेके कारण भिखारीके भीखके भोजन समान धन, विषय, स्त्री आदिमें जो परमार्थबुद्धि है, अर्थात् ऐसा श्रद्धान है कि, ये वास्तवमें सुखके देनेवाले हैं, वह दूर नहीं होती हैं। और इस बुद्धिसे ग्रसित हुआ जीव जैसा कि, स्वयं उसका मलीन चित्त हैं, उसीके अनुसार, जिनके हृदयमें किसी प्रकारकी अभिलाषा नहीं है. ऐसे मुनिराजोंके विषयमें वारवार ऐसी शंका करता है कि, यदि मैं इनके समीप रहूंगा, तो ये मुझसे कुछ न कुछ मांगेंगे । और इससे उनके साथ गहरा परिचय छोड़ देनेकी इच्छासे उनके पास भी बहुत समय तक नहीं बैठता है । १ जो सम्यक्त्व दूसरेके उपदेशादिसे होता है, उसे अधिगमज कहते हैं ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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