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________________ १३० और जो कहा है किः — " वेह धर्मवोधकर उस भिखारीको अपने अंजनके माहात्म्यसे सचेत हुआ देखकर बोला कि, हे भद्र | इस जलको पी ले, जिससे तेरा शरीर स्वस्थ हो जाय। परन्तु उसने न जाने इसके पीने से मेरा क्या होगा, इस प्रकारकी शंका करके उस 'तत्त्वप्रीतिकर' जलको नहीं पिया, जो कि सारे तापका शमन करनेवाला था। निदान उस दयालु धर्मबोधकरने 'दूसरेकी भलाई यदि वलात्कार करनेसे भी हो सके, तो करनी चाहिये' ऐसा सोच कर अपने सामर्थ्यका प्रयोग किया और उससे उसका मुंह फाड़कर वह जल पिला दिया । उसका आस्वादन करते ही निष्पुण्यकका महा उन्माद नष्ट सरीखा हो गया, शष रोग हलकेसे पड़ गये, और दाहकी पीड़ा शान्त हो गई । इससे वह स्वस्थाचत्तसरीखा हो गया और फिर विचारने लगा ।" यह सब वृत्तान्त जीवके विषय में इस प्रकारसे योजित करना चाहिये कि : यह जीव थोड़ासा अवकाश पाकर अच्छे साधुओंके उपाश्रयोंमें जाता है । वहां उनकी संगतिसे पाये हुए केवल शास्त्रों के पढ़नेसे थोड़ासा ज्ञान प्राप्त करता है । परन्तु सम्यग्दर्शन के पाये विना धन स्त्री विषय आदिमें परमार्थदृष्टि रखता है अर्थात् उन्हें वास्तवमें हितकारी समझता है । इसलिये उनमें जो उसके ममतारूप परिणाम होते हैं, उनसे अच्छे साधुओं को भी वे कुछ मांग न लेवें, ऐसी शंकाकी दृष्टि से देखता है और इसलिये उनसे धर्मकथाके व्याख्यान सुनना छोड़ देता है जब धर्माचार्य महाराज इस जीवको ऐसी अवस्थामें देखते हैं, तब अपनी दयालुतासे उनका यह विचार होता है कि, यह अच्छेसे अच्छे गुणों का पात्र हो जाय, और इसलिये. वे जब कभी उसे अपने पास देखते हैं, तब किसी दूसरे पुरुषको १ इसका सम्बन्धं २६ वें पृष्ठके पहले पारिग्राफसे है ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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