SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ नहीं हो सके, ७ राजसेवा नहीं बन सके और ८ खेती आदिकार्य बाकी रहकर बढ़ जावें।" जीवके इन टालटूलके उत्तरोंको अंजन लगाते समय भिखारीके इधर उधर सिर हिलानेके समान समझना चाहिये । जीवके ये वचन सुनकर दयाल धर्मगुरु यह सोचकर कि, यह बेचारा पुण्यहीन जीव दुर्गतिको चला जायगा, इसलिये इसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये-अर्थात् उदास होकर इसे छोड़ नहीं देना चाहिये; बोले कि:-“हे वत्स ! यद्यपि ऐसा ही होगा अर्थात् तुझे अवकाश वगैरह नहीं मिलता होगा, तो भी भेरे अनुरोधसे जो मैं एक बात कहता हूं, उसे कर । वह यह कि, तुझे रात दिनमें केवल एक बार उपाश्रय वा वसतिकामें आकर साधुओंका दर्शन कर जाना चाहिये । बस यही एक प्रतिज्ञा ग्रहण कर ले, अब हम और कुछ भी तुझसे ग्रहण करनेके लिये नहीं कहेंगे।" तब उसने 'अब ऐसे विकट मार्गमें आ पड़नेपर क्या करना चाहिये, ऐसा सोचकर इच्छा न रहते भी उक्त प्रतिज्ञा ग्रहण कर ली, अर्थात् प्रतिदिन उपाश्रयमें जाकर साधुओंका दर्शन करना स्वीकार कर लिया। जीवने यह जो गुरुमहाराजके वचनका गौरव किया, अर्थात् उसे मान लिया, सो भिखारीका अपनी आँखों में अंजन अँजानेके समान है। तदनन्तर प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेनेपर वह प्रतिदिन साधुओंके उपाश्रयमें जाने लगता है। वहां अच्छे २ साधुओंका समागम रहनेमें, उनकी विनावनावटकी सच्ची क्रियाओंके देखनेसे, उनके निष्पृहता (इच्छारहितपना) आदि गुणोंका निरीक्षण करनेसे और स्वयं बाँधे हुए पाप परमाणुओंकी निर्जरा होनसे उसको विवेककी प्राप्ति होती है । इसे गई हुई चेतनाके फिर आनेके समान समझना चाहिये। इसके पश्चात् इस जीवको जो वारंवार धर्मका स्वरूप जाननेकी इच्छा होती है, उसे आँखें खोलनेके समान, जो क्षणक्षणमें अज्ञानका नाश होता है,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy