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________________ प्रेममें अर्थात् संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यानमें ऐसा नष्टबुद्धि हो जाता है कि, वेचारा सारे रोगोंके हरण करनेवाले और अमृतके समान मीठे परमान्नको देनेके लिये बुलाती हुई उस तद्दयाको नहीं जानता हैउसकी वात भी नहीं सुनता है।" भिखारीका यह सत्र चरित्र जीवके विषयमें इस प्रकारसे घटित करना चाहियेः__ जीवका हित करनेकी इच्छासे जिस समय भगवान् धर्मगुरु धर्मकी विस्तारपूर्वक प्रशंसा करके फिर चार प्रकारके धर्मके पालन करनेका उपदेश देते हैं, उस समय यह जीव मिथ्याज्ञानरूप महा अंधकारमय काच, पटलं, तिमिर और कामला ( पीलिया ) आदि व्याधियोंके कारण विवेकरूपी नेत्रोंकी शक्ति लुप्त हो जानेसे, अनादि संसारसे जिसका अभ्यास हो रहा है, ऐसे महामिथ्यात्वरूप उन्माद तथा संतापके कारण दुखी होनेसे, तीव्र चारित्रमोहनीयरूप रोगोंसे विहल होनेसे और विपयधनस्त्रीपुत्रादिके गाढ़े मोहसे घिरा होनेसे इस प्रकार विचार करता है कि, " जब पहले मैं धर्म अधर्मके विचारकी कुछ भी खोज नहीं करता था, तब इन साधुओंके पास कभी जाता था, तो ये मेरी बात भी नहीं पूछते थे। और यदि किसी अवसरपर मुझसे कुछ धर्मके विषयमें कहते थे, तो अनादरसे केवल एक दो बातें कहते थे । परन्तु अब मुझे धर्म अधर्मके जाननेमें तत्पर समझकर और 'यह हमारे उपदेशका अनुगामी हो जायगा' ऐसा मानकर मैं नहीं पूछता हूं, तो भी ये जगत्प्रसिद्ध जैनसाधु अपने कंठ और तालुके सूखनेका विचार न करके ऊंचे स्वरसे और वचनोंकी रचनाके बड़े भारी घटाटोपसे मेरे आगे धर्मकी प्रशंसा करते हैं । और मेरा चित्त कुछ धर्मकी ओर खिंचा हुआ देखकर मुझसे दान दिलाते हैं, शील ग्रहण कराते हैं, तपस्या कराते हैं, और भावनाएं चिन्तवन कराते हैं।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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