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________________ ११७ तब यह नहीं जान पड़ता है कि, इनके इस विना समयके ही इतने वचनोंके घटाटोपका गूढ आशय क्या है ? मेरे सुन्दर २ स्त्रियां हैं, नाना प्रकारके द्रव्योंका संचय है, अनेक प्रकारके धान्यके कोठे हैं और सब प्रकारके चौपाये तथा कुप्य पदार्थ हैं। ये सब बातें जान पड़ता है कि, इन्हें अब निश्चयपूर्वक मालूम हो गई हैं। इससे इनके उक्त सत्र वचनाडम्बरका यह अभिप्राय होगा कि, 'तुझे दीक्षा देते हैं, तेरे सब पाप नष्ट किये देते हैं, तेरे कर्मवीजको जलाये देते हैं, तू हमारा वेप धारण कर, गुरुके चरणोंकी पूजा कर, और उनके चरणामें ही अपनी स्त्री, धन, सोना आदि समस्त सम्पत्ति चढ़ा दे, फिर उनकी आज्ञाके अनुसार चलनेसे तू पिंडपात करके अर्थात् शरीरको छोड़कर शिव हो जायगा। ऐसे २ वचनोंकी रचनासे ठगकर ये जैनसाधु शैवाचार्यके समान मुझे मूसनेकी इच्छा करते हैं अर्थात् छीन लेना चाहते हैं, अथवा 'सुवर्णदान बहुत बड़े फलका देनेवाला है, गायका दान देनेसे पुरुप वड़ा भाग्यशाली होता है, पृथिवीका दान करना अक्षय्य ( अविनाशी) होता है, पूर्तधर्म अर्थात् यज्ञ करना वा सरोवर आदि खुदाना अतुल फलका देनेवाला है, वेदके पारगामी ब्राह्मणोंको दान देना अनन्तगुणे फलका दाता होता है, तत्कालकी व्यानी हुई, बछड़ेवाली (8), वन्न ओढ़े हुए, सोनेसे मढ़े हुए सींगोंवाली, और रत्नोंसे सनाई हुई गाय विधिपूर्वक ब्राह्मणको देनेसे जिसके चारों समुद्ररूपी मेखला (करधनी) है, ऐसी ग्राम नगर खानि पर्वत और उपवनों सहित पृथ्वी दान दी, ऐसा समझा जाता है, और वह अटूट फलकी देनेवाली होती है। ऐसे २ मूर्ख लोगोंको ठगनेवाले कपोलकल्पित श्लोकोंमें रचे हुए ग्रन्योंसे जिस प्रकार ब्राह्मण लोग संसारको ठगते हैं, उसप्रकारसे ये
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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