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________________ ११५ चने लगा कि, और दिन भिक्षा माँगनेपर भी लोग मुझे निकाल देते थे अथवा तिरस्कारपूर्वक कुछ थोड़ा बहुत दे देते थे। परन्तु आज यह सुन्दर वेपवाला पुरुष जो राजासरीखा जान पड़ता है, स्वयं आकर मुझे बुलाता है और 'तुझे भिक्षा देता हूं' ऐसा कहकर लुभाता है | यह क्या आश्चर्य है ? इस प्रकार विचार करते हुए भिखारीके मन में फिर उसके ओछे अभिप्रायोंके कारण यह वात उठी कि, यह मुझे अच्छा नहीं मालूम होता है । जान पड़ता है कि, यह सत्र प्रपंच मेरे मूसने के लिये रचा गया हैं । मेरा यह भिक्षाका पात्र प्रायः पूरा भर चुका है, इसलिये यह मुझे किसी निर्जन स्थानमें ले जाकर इसे जरूर ही छीन लेगा । तो अब मुझे क्या करना चाहिये ? क्या मैं इस स्थानसे एकाएक भाग जाऊं ? अथवा बैठकर इस पात्र के भोजनको ही भक्षण कर डालूं ? अथवा मुझे भिक्षा नहीं चाहिये इस प्रकार प्रतिषेध करके यहांसे एक पैर भी आगे न बढ़ाऊं ? अथवा इसे धोखा देकर के - छलकरके जल्दीसे कहीं घुसकर छुप रहूं ? न जाने इससे मेरा छुटकारा कैसे होगा ? जब वह ऐसे २ बुरे विकल्पों के उपजनेसे व्याकुल होता हुआ चिन्ता करता है, तब उसे बड़ा भारी भय होता है, तृष्णा बढ़ती है, हृदय सूखता है, अन्तरात्मा विहुल हो जाता है, और चित्तवृत्तिके अतिशय जडरूप हो जानेसे संरक्षणानुबन्धी महारौद्रध्यान उत्पन्न होता है । इंद्रियोंका व्यापार रुद्ध हो जाता है, नेत्रबन्द हो जाते हैं, और चेतना नष्ट हो जाती है, इससे नहीं जानता है कि मैं कहां लाया गया हूं, अथवा कहां ठहरा हूं, केवल गढ़ी हुई खड़ी खूँटीके समान निश्चेष्ट हो कर खड़ा रहता है और वह तदया वारंवार 'यह भोजन ग्रहण कर इस प्रकार कह कह कर थक जाती है । परन्तु निष्पुण्यक दरिद्री अपने उस सारे रोगोंके करनेवाले तुच्छ कुभोजनकी रक्षा करनेके गहरे
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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