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________________ परिग्रह जोड़नेसे, रात्रिभोजनसे, मद्य पीनेसे, मांस खानेसे, सजीव फल (गूलरआदि उदुम्बुरफल ) खानेसे, मित्रद्रोहसे, गुरुकी स्त्री सेवनसे, अथवा और भी जो बातें तुमसे छोड़ी जा सके, उनसे निवृत्त हो ना, शक्तिके अनुसार किसी एक तपको कर, और निरन्तर शुभभावनाओंका चिन्तवन किया कर, जिससे तुझे इस लोकमें और परलोकमें दोनों जगह सब प्रकारके सुख प्राप्त हों।" इससे कथामें जो कहा है कि:-"धर्मबोधकरने जब उस भिखारीको भोजन करनेके योग्य स्थानमें ले जाकर बिठाया, और अपने सेवकोंको उसे भिक्षा देनेके लिये आज्ञा दी। तत्र शीघ्र ही उसकी (धर्मबोधकरकी) तदया नामकी लड़की अतिशय मीठे परमान्न को (खीरको) लेकर उसके देनेके लिये पहुंच गई।" सो सब इस तरहसे योजित होगया कि:धर्माचार्यने जो धर्मकी प्रशंसा की, सो भिखारीको बुलानेके समान समझना चाहिये, उसके चित्तको अपनी ओर आकर्षण करना भोजनके योग्य स्थानमें ले जाकर विठानेके तुल्य जानना चाहिये, धर्मके भेद वर्णन करना सेवकोंको भिक्षा देनेके लिये आज्ञा करनेके.समान मानना चाहिये और उन गुरुमहाराजकी इस जीवपर जो दया हुई, उसे धर्मबोधकरकी 'तद्दया'' नामकी पुत्री जानना चाहिये । इसके सिवाय दानमय, शीलमय आदि चार प्रकारके धर्मोके पालन करनेके उपदेश देनेको तद्दयाके परमान्न देनेके समान समझना चाहिये । क्योंकि वह धर्मोपदेशरूप परमान्न धर्माचार्योंकी दयासे (तद्दयासे) ही जीवको प्राप्त हो सकता है-अन्य किसी प्रकारसे नहीं। ___ आगे कहा है कि:--"उस धर्मबोधकरको अकारण भिक्षा देनेके लिये इस प्रकार अतिशय आदरवान् देखकर भिखारी सो १ तस्मिन् जीवे दया-कृपा।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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