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________________ १०९ जाननेकी अभिलापा हुई है उससे, दूसरे धर्मशास्त्रके स्वरूपकी लेशमात्र प्राप्तिसे जो इसे भिखारीके मुखकी प्रफुल्लताके समान संसारसे संवेग ( भयभीतता) हुआ है उससे, और तीसरे धूलसे मलिन हुए अंगोपांगोंमें रोमांच होनेके समान जो इसकी थोड़ीसी प्रवृत्ति शुभ क्रियाओंमें हुई है, उससे । इन तीन वातोंसे इस जीवके मनकी प्रसन्नता सूचित होती है और इससे भगवानकी उसपर दृष्टि पड़ी है, ऐसा निर्णय होता है। मेरे जीवविषयक निश्चय करनेमें भी ये दो ही कारण हैं, एक 'स्वकर्मविवरताकी प्राप्ति' और दूसरा 'भगवानके शासनका पक्षपात'। पश्चात् उस भोजनशालाके अधिकारीने निप्पुण्यकके विषयमें चिन्तवन किया कि:-" यद्यपि यह इस समय भिखारी है, तथापि महारानकी दृष्टि पड़नेके कारण इसका धीरे २ कल्याण होता जायगा और कुछ कालमें यह वस्तुत्वको (महाराजत्वको) प्राप्त हो जायगा, इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है।" इसी प्रकारसे धर्माचार्य महाराज भी यह जान करके कि इस जीवपर भगवानका दृष्टिपात हो गया है, इसलिये इसका भविष्यमें अवश्य ही कल्याण होगा; ऐसा सन्देहरहित होकर निश्चय कर लेते हैं। जैसे सुस्थित महाराजकी उस भिखारीपर दृष्टि पड़ी है, ऐसा निर्णय होते ही उनकी अनुवृतिके वश (अनुयायी होनेके कारण) धर्मबोधकर दयाल हो गया, उसी प्रकारसे इस जीवपर परमात्मा भगवान्की दृष्टि पड़ी है, ऐसा जानकर. धर्मगुरु वा धर्माचार्य महाराज भी उनकी (भगवानकी) आराधना करनेमें तत्पर रहनेके कारण दयालु हो जाते हैं। अर्थात् आचार्य महाराज. इस. जीवपर. दया करके मानो जिनेन्द्रदेवकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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