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________________ १०८ यकी दोनों कोटियोंका अवलम्बन कर रही है, हमारा मन इस अभिप्रायसे कि " यह क्या आश्चर्य है " डाँवाँडोल हो रहा है। फिर इस अभिप्रायसे पर्यालोचना करते २ धर्मबोधकरने निश्चय किया कि, "इस भिखारीपर महाराजकी दृष्टि पड़नेके दो कारण हैं और उनसे इसपर परमेश्वरकी दृष्टि पड़ना युक्तिसंगत जान पड़ता है। एक तो यह कि इसे अच्छी तरह परीक्षा करनेवाले स्वकर्मविवर द्वारपालने राजभवनमें प्रवेश करने दिया है, इससे यह महाराजकी विशेष दृष्टिके योग्य है और दूसरे इस राजमन्दिरका अवलोकन करके जिसका मन प्रसन्न होता है, वह महाराजका अत्यन्त प्यारा होता है ऐसा मैं पहले निश्चय कर चुका हूं और मुझे जान पड़ता है कि इसके मनमें प्रसन्नता अवश्य हुई है। क्योंकि यद्यपि इसके दोनों नेत्र रोगोंसे अतिशय पीड़ित हैं, तो भी राजभवनके देखनेकी अभिलापासे यह उन्हें वारंवार खोलता है । राजमन्दिरके देखनेसे इसका मुख भी जो कि अतिशय वीभत्सरूप (घिनौना) था, एकाएक प्रसन्नताकी प्राप्तिके कारण दर्शनीय हो गया है, और इसके धूलसे मैले हुए सारे अंगउपांग भी रोमांचित हुए दिखलाई देते हैं। ये सत्र लक्षण अंत:करणके हर्षके विना नहीं होते हैं, अतएव राजभवनकी ओर इसका इतना प्रेम होना, यह महाराजकी दृष्टि पड़नेका दूसरा कारण है ।". इन सब बातोंका धर्माचार्य महाराज भी मेरे जीवके विषयमें विचार करते हैं। सो इस प्रकारसे कि:- अनेक हेतुओंसे जाना जाता है कि, इस जीवके कर्मोंका विच्छेद (कर्मविवर) हुआ है। इसी प्रकार भगवानके शासनको पाकर इसके हृदयमें जो प्रसन्नता हुई हैं, वह भी आगे कहे हुए कई प्रकारोंसे जान पड़ती है। एक तो निष्पुण्यकके आंखें खोलनेके समान जो इसजीवको जीवादि पदार्थोंके
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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