SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० भगवानकी जिसपर दृष्टि पड़ जाती है, उसपर कृपा करना उस दृष्टिकी वा दृष्टि डालनेवालेकी ही आराधना करनेके बराबर है। • फिर "वह रसोईका अधिकारी धर्मवोधकर आदरके वश शीघ्र ही उसके समीप गया और 'हे भद्र ! आओ आओ ! मैं तुम्हें भिक्षा दूं ऐसा कहकर उसने भिखारीको बुलाया।" ऐसा जो कहा है, सो इस प्रकारसे योजित करना चाहिये कि:--पहले कहे हुए न्यायसे अनादि संसारमें परिभ्रमण करते २ जब इस जीवके भव्यत्व गुणका परिपाक होता है, क्लिष्ट (अशुभ) कर्म वहुत करके क्षीण हो जाते हैं, जो थोड़ेसे शेष रह जाते हैं, वे रंध्र दे देते हैं अर्थात् शिथिल हो जाते हैं, मनुष्यभवादि सामग्री प्राप्त होती है, सर्वज्ञशासनका दर्शन होता है, उसके विपयमें अच्छी बुद्धि होती है, पदार्थोके जाननेकी थोड़ीसी इच्छा होती है, और अच्छे कर्म करनेकी कुछेक बुद्धि होती है, तब धर्माचार्य महाराजके परिणाम अतिशय दयाल होते हैं । और इस प्रकारके भद्रकभावमें (निकटभव्यत्वमें ) वर्तता हुआ जीव यद्यपि अभीतक पाप करता है, तथापि इसपर भगवान्की दृष्टि पड़ी है, इसलिये यह सन्मार्गमें (जिनशासनमें ) आनेके योग्य है, ऐसा निश्चय करके वे भावपूर्वक इसके ( मेरे ) सम्मुख होते हैं। इसे धर्मबोधकरके भिखारीके समीप आनेके समान समझना चाहिये । आगे धर्माचार्य महाराज प्रसन्न होकर इससे कहते हैं कि:-हे भद्र । यहलोक अकृत्रिम है अर्थात् किसीका बनाया हुआ नहीं है, काल अनादि अनन्त है, आत्मा शाश्वतस्वरूप है अर्थात् इसका कभी नाश नहीं होता है-अजर अमर है, इसके पीछे जो मरने जीनेरूप भवप्रपंच लगा हुआ है, वह कर्मोंके कारण है, वे कर्म अनादि कालसे जीवके साथ सम्बद्ध हो रहे हैं, और उन कर्मोंकी उत्पत्तिमें प्रवाह
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy