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________________ ( ९९ ) - आक्षेप न कर सके और समाजमें उनकी उलटी सीधी सभी बातें प्रचलित हो जायें, इन्हीं सब वातोंके लिए यह बँध बाँधा गया है । आगे साफ लिख दिया है कि ' तदाज्ञाकारको मत्यों न दुष्यति विधौ पुनः 'गुरुकी आज्ञासे काम करनेवालेको कोई दोष नहीं लगता। कितना बड़ा आश्वासन है । ऐसे ही मिथ्या आश्वासन के द्वारा जैनसमाजमें मिथ्यात्वका प्रचार हुआ है। अनेक प्रकारकी पूजायें - देवी देवताओंकी उपासनायें जारी हुई हैं, जिनका बहुतसा कथन इस ग्रंथमें भी पाया जाता है । इसी प्रतिष्ठाध्यायमें अनेक ऐसे कृत्योंकी सूचना की गई है जो जैनधर्मके विरुद्ध हैं - जैनसिद्धान्तसे जिनका कोई सम्बंध नहीं है और जिनका सर्वसाधारणके सन्मुख स्वतंत्र विवेचन प्रगट किये जाने की जरूरत है। यहाँ इस अध्यायके सम्बंध में सिर्फ इतना और बतलाया जाता है कि, इसमें मुनिको - साधारण मुनिको नहीं बल्कि गणि और गच्छाघिपतिको प्रतिष्ठाका अधिकारी बतलाया है। उसके द्वारा प्रतिष्ठित किये हुए विम्बादिकके पूजन सेवनका उपदेश दिया है । और यहाँ तक लिख दिया है कि जो प्रतिष्ठा ऐसे महामुनि द्वारा न हुई हो उसे सम्यकू तथा सातिशयवती प्रतिष्ठा ही न समझनी चाहिए। और इस लिए उक्त प्रतिष्ठार्मे प्रतिष्ठित हुई मूर्तियाँ अप्रतिष्ठित ही मानी जानी चाहिए । यथा: - " सामायिकादिसंयुक्तः प्रभुः सूरिर्विचक्षणः । देशमान्यो राजमान्यः गणी गच्छाधिपो भवेत् ॥ ९२ ॥ बिम्यं प्रतिष्ठामिन्द्रत्वं तेन संस्कारितं भजेत् । नोचेत्प्रतिष्ठा न भवेत्सम्यक् सातिशयान्विता ॥ ९३ ॥ परन्तु इन्द्रनन्दि, वसुनन्दि और एकसंधि आदि विद्वानोंने, पूजासारादि प्रथोंमें, महावती मुनिके लिए प्रतिष्ठाचार्य होने का सख्त निषेध किया है। और अणुवतीके लिए चाहे वह स्वदारसंतोषी हो या ब्रह्मचारी - उसका विधान किया है। ऐसी हालतमें, जैनी लोग कौनसे "
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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