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________________ (९८) अर्थात् - जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह अर्हन्तके वचनोंको नहीं मानता । उसे जैनधर्मसे वहिर्भूत समझना चाहिए और वह मरकर नरक गतिको प्राप्त होगा । नरक गतिका यह फर्मान भी बड़ा ही विलक्षण हैं ! इसके अनुसार जो लोग जैनधर्मसे वहिर्भूत है अर्थात् अजैनी हैं उन सबको नरक जाना पड़ेगा ! साथ ही, जो जैनी हैं और जैन गुरुके- पद वीधारी गुरुके - उलटे सीधे सभी वचनोंको नहीं मानते - किसीको मान लेते हैं और किसी को अमान्य कर देते हैं - उन सबको भी नरक जाना होगा ! कैसा कूटोपदेश है ! स्वार्थ रक्षाकी कैसी विचित्र युक्ति हैं ! समाज में कितनी अन्धश्रद्धा फैलानेवाला है ! धर्मगुरुओं - स्वार्थसाधुओं-कपट वेषघारियोंके अन्याय और अत्याचारका कितना उत्पादक और पोषक है। साथ ही, जैनियोंके तत्त्वार्थसूत्रमें दिये हुए नरकायुके कारण विषयक सूत्रसे - ' वह्नारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ' इस वाक्यसे - इसका कहाँ तक सम्बंध है ? इन सब बातोंको विज्ञ पाठक विचार सकते हैं । समझमें नहीं आता कि जैनगुरुके किसी वचनको न माननेसे ही किस प्रकार कोई जैनी अर्हन्तके वचनोंको माननेवाला नहीं रहता? क्या सभी जैनगुरु पूर्णज्ञानी और वीतराग होते हैं ! क्या उनमें कोई स्वार्थसाधु, कपट-वेषघारी, निर्बलात्मा और कदाचारी नहीं होता ? और क्या जिन गुरुओंके कृत्योंकी यह समालोचना ( परीक्षा ) हो रही है वे जैनगुरु नहीं थे ? यदि ऐसा कोई नियम नहीं है बल्कि वे अल्पज्ञानी, रागी, द्वेषीआदि सभी कुछ होते हैं । और जिनके कृत्योंकी यह समालोचना हो रही है वे भी जैनगुरु कहलाते थे तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह अर्हन्तके वचनोंको भी नहीं मानता ? और उसे जैनधर्मसे बहिर्भूत - खारिज - अजैनी समझना चाहिए ! मालूम होता है कि यह सब भोले जीवोंको ठगनेके लिए कपटी साधुओं का मायाजाल है । उनके कार्यों में कोई बाघा न डाल सके— उनकी काली कृतियों पर उनके अत्याचार दुराचारों पर - कोई
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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