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________________ ग्रन्य-पक्षिा। -ameron 1. २५३ ४९, ६०, ६, २५३ वा पद्य मीमांसक मतके प्रकरण११लेक)७५, ८५, २५५/ नीमांसक मतके देवताके १२९३ का उत्तरार्ष १४३ का उत्तरार्ध, निरूपण और प्रमाणों के कयनती प्रतिज्ञा १३४४ का पूर्वाध, है, अगले पचने प्रमाणोंके नान दिये ३६६ का उत्तरार्व है। और दर्शनों के कयनमें भी देवताका ४२० के अन्तिमवर्णन पाया जाता है। पच नं ४९ में तीन चरण औरअल्पटिका योग दिया है, ६० में किस ४२१ का पहला किस महीने में मकान बनवानेसे क्या लाम लोकी हानि होती है; ६३ में कौनसे नक्षत्र में, घर बनाने का सूत्रपात करना; ७४ में यशव्ययके स्पष्ट भेद, इससे पूर्वके पछमें वक्षव्यय अष्ट प्रकारका है ऐसा दोनों अंथोने सूचित किया है, ८५ वाँ पद्य अपरं च करके लिखा है; ये चारों पर गृहनिर्माण प्रकरण हैं । २५५ वा पद्य जैनदर्शन प्रकरणमा है। इसमें सेताम्बर साधुओशा स्वरूप दिया है। इससे अगले पद्यनें दिगम्बर साधुओंका स्वरूप है । २९: वाँ पर शिवमतके प्रकरणा है । उत्तरार्धके न होनेसे साफ अधूरापन प्रगट है। क्योंकि पूर्वाधने ना द्रव्योमेसे वारके नित्यानित्यत्वका वर्णन है वासीका वर्णन उत्तरार्धमें है । शेष पोका वर्णन आगे दिया जायगा। e-man - -
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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