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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। - परकार्यापहरणं परद्रव्योपजीवनम् । ततोऽज्ञानकृतं वापि कायिकं वाचिकं तथा ॥ मानसं त्रिविधं पापं प्रायश्चित्तैरनाशितम् । तस्मादशेप पापेभ्यस्त्राहि त्रैलोक्यपावनि ॥" " ...इत्यादि प्रकीर्णपातकानां एतत्कालपर्यंतं संचितानां लघुस्थूलसूक्ष्माणां च निःशेपपरिहारार्थ...देवब्राह्मणसवितासूर्यनारायणसनिधो गंगाभागीरथ्यां अमुक तीर्थे चा प्रवाहाभिमुखं स्नानमहं करिष्ये ॥" इससे साफ जाहिर है कि त्रिवर्णाचारका यह सब कथन हिन्दूधमका कथन है । हिन्दुधर्मके ग्रंथोंसे, कुछ नामादिकका परिवर्तन करके, लिया गया है । और इसे जबरदस्ती जैन मतकी पोशाक पहनाई गई है। परन्तु जिस तरह पर सिंहकी खाल ओढ़नेसे कोई गीदड सिंह नहीं बन सकता, उसी तरह इस स्नानप्रकरणमें कहीं कहीं अर्हन्तादिकका नाम तथा जैनमतकी १४ नदियोंका सूत्रादिक दे देनसे यह कथन जनमतका नहीं हो सकता। जैनियोंके प्रसिद्ध आचार्य श्रीसमन्तभद्रस्वामी नदीसमुद्रोंमें, इस प्रकार धर्मबुद्धिसे, स्नान करनेका निषेध करते हैं। और उसे साफ तौर पर लोकमूढता बतलाते हैं । यथाः "आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । - गिरिपातोग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥" -रत्नकरण्डश्रावकाचारः। सिद्धान्तसार ग्रंथमें पृथ्वी, अग्नि, जल और पिप्पलादिकको देवता माननेवालों पर खेद प्रकट किया गया है । यथाः "पृथिवीं ज्वलनं तोयं देहली पिप्पलादिकान् । देवतात्वेन मन्यते ये ते चिन्त्या विपश्चिता ॥४४॥" १०३
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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