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________________ ग्रन्थ-परीक्षा। . इसीप्रकार जैन शास्त्रोंमें बहुतसे प्रमाण मौजूद हैं, जो यहाँ अनावश्यक समझकर छोड़े जाते हैं। और जिनसे साफ़ प्रगट है कि, ननदियाँ धर्मतीर्थ हैं, न तीर्थदेवता और न उनमें स्नान करनेसे : पापोंका नाश हो सकता है. । इस लिए त्रिवर्णाचारका यह सब. कथन जैनमतके विरुद्ध है। ४-पितरादिकोंका तर्पण। · हिन्दुओंके यहाँ, स्नानका अंगस्वरूप, तर्पण' नामका एक नित्यकर्म वर्णन किया है । पितरादिकोंको पानी या तिलोदक (तिलोंके साथ पानी) आदि देकर उनकी तृप्ति की जाती है, इसीका नाम तर्पण है। तर्पणके जलकी देव और पितरगण इच्छा रखते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं; ऐसा उनका सिद्धान्त है। यदि कोई मनुष्य नास्तिक्य भावसे, अर्थात् यह समझकर कि 'देव पितरोंको जलादिक नहीं पहुँच सकता' तर्पण नहीं करता है तो जलके इच्छुक पितर उसके देहका रुधिर पीते हैं; ऐसा उनके यहाँ योगियाज्ञवल्क्यका वचन है। यथाः- . "नास्तिक्यभावाद् यश्चापि न तर्पयति वै सुतः। , ... पिबन्ति देहरुधिरं पितरो वै जलार्थिनः ॥" जिनसेनत्रिवर्णाचार (चतुर्थपर्व ) में भी स्नानके बाद तर्पण' को नित्य कर्म वर्णन किया है और उसका सब आशय और अभिप्राय प्रायः वही रक्खा है, जो हिन्दुओंका सिद्धान्त है । अर्थात् यह प्रगट किया है कि पितरादिकको पानी या तिलोदकादि देकर उनकी तृप्ति करना चाहिए। तर्पणके जलकी देव पितरगण इच्छा रखते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं जैसा कि नीचे लिखे वाक्योंसे प्रगट है:.. " असंस्काराश्च ये केचिजलाशाः पितरः सुराः ।. ... तेषां संतोषतृप्त्यर्थं दीयते सलिलं मया ॥" . १०४
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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