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________________ उपसंहार भारतीय वाङ्मय में पालि साहित्य का स्थान ___ गत पृष्ठों में जिस साहित्य का पर्यालोचन किया गया है वह भारतीय माहित्य का अभी तक प्रायः एक उपेक्षित अंग ही रहा है। संपूर्ण मध्यकालीन भारतीय आर्य साहित्य का ही वैसे तो यथावत् अध्ययन अभी हिन्दी में नहीं किया गया । किन्तु पालि-साहित्य के अतिशय गौरवशाली होने के कारण उसकी उपेक्षा तो अत्यंत हृदय द्रावक है। छठी शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर छठी शताब्दी ईसवी तक अर्थात् पूरे १२०० वर्ष के भारतीय इतिहास में जो कुछ भी सबसे अधिक स्मरणीय, जो कुछ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह पालि-साहित्य में निहित है । इस युग का भारतीय समाज, धर्म, दर्शन और सबसे अधिक विश्व-संस्कृति को उसका मौलिक दान, सभी कुछ पालि साहित्य में अंकित है। फिर भी इस महत्वपूर्ण साहित्य का जितना अध्ययन और प्रकाशन कोलम्बो (सिंहल), रंगून, (बरमा ), बंकाक ( स्याम ) और पालिटैक्स्ट् मोसायटी, लन्दन से हुआ है, उतना किसी भारतीय नगर या शिक्षा केन्द्र के विषय में तो कहा भी नहीं जा सकता। संपूर्ण भारत की वात जाने भी दें तो भी मध्य-मंडल (शास्ता की विचरण भूमि) में पालि स्वाध्याय की जो दयनीय अवस्था है उसे देखकर तो आश्चर्य होता है कि हम किस प्रकार अपनी संस्कृति के तत्वों के संरक्षण का दम भरते हैं। जिस संस्कृति के प्रभाव को चीन , जापान, कोरिया, मंगोलिया, तिब्बत, मध्य-एशिया और अफगानिस्तान की भूमियाँ अभी नहीं भूली हैं, जिसकी स्मृतियाँ अभी तक लंका, बरमा और स्याम के निवासियों के हृदय में, उनके सारे सामाजिक संस्थान और गजैनितक विधान में गुथी हुई पड़ी हैं, उसे हम भारतवासी, जो उसके वास्तविक प्रतिनिधि है, भूल चुके है । यह एक दुःखद, किन्तु सत्य बात है । भगवान बुद्ध के जिस शासन के माध्यम से हम संसार के संपर्क में आये
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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