SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 666
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४५ ) थे, उसे हम आज तोड़ चुके हैं। आज हम कच्ची बुनियादों पर महल खड़े कर रहे हैं । समय ही बतायेगा कि वे बुनियादें कितनी स्थायी होती हैं । हाँ इतिहास की ओर मुड़कर हम चाहें तो एक ऐसे आधार का भी आश्रय ले सकते हैं जिसकी परीक्षा पहले हो चुकी है । यह आधार उम माहित्य और संस्कृति का है जिसे हम बुद्ध के नाम से संयुक्त करते हैं । इस माध्यम की पूर्व परम्परा बड़ी शुभ्र रही है । इसके द्वारा हम जिस किमी से मिले तो उसका शोषण करने के लिए नहीं, बल्कि अपने संपर्क से केवल उसी को कृतार्थ करने के लिए उसी के अनुकम्पार्थ! अशोक के प्रवजित पुत्र महेन्द्र और उनके साथी भिक्षुओं ने जब लंकाधिपति देवानं पिय तिस्स मे गौरव भरे शब्दों में यह कहा 'हम तेरे ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही भारत से यहाँ आये है' (तवेव अनुकम्पाय जम्बुदीपा इधागता) तो उन्होंने अपने इन शब्दों से उस सारी भावना का ही प्रतिनिधित्व कर दिया जिससे प्रभावित होकर शतसहस्र धर्मोपदेशक भिक्षुओं और मानव जाति के सेवक भारतीय मनीषियों ने हजारोंकोसों को भयानक पैदल यात्राएँ कर विदेश-गमन किया था। इन स्मृतियों को पृष्ठभूमि को लेकर चाहे तो भारतीय राष्ट्र आज भी कम से कम एशिया के देशों में अपने पूर्व संबंधों को फिर से जीवित कर सकता है, उनके साथ मैत्री के संबंध दृढ़तर कर सकता है। पालि साहित्य का शुभ आशीर्वाद सदा उमे अपने इस प्रयत्न में मिलेगा । _ विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से पालि साहित्य का अर्थ-गौरव और उसकी प्रभावमयो ओजस्विनी भाषा-शैली किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकती है। किन्तु उसके इस संबंधी गुणों या ऐतिहासिक महत्व के विषय में हमें कुछ नहीं कहना है । पहले भी इसके संबंध में बहुत कुछ कहा जा चुका है । भारतीय माहित्य के इतिहास में पालि का स्थान सब प्रकार संस्कृत के साथ है। संस्कृत माहित्य रूपी महासमुद्र में ही आर्य जाति के संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का भांडार निहित है। उसी महासागर का एक आवर्त पालि भी है। पालि संस्कृत से व्यतिरिक्त नहीं, बल्कि भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टियों से वह उसी का एक रूपान्तर या अंग ही है । अतः संस्कृत साहित्य के अविभाज्य अवयव के रूप में पालि का महत्व भारतीय साहित्य में सदा सुप्रतिष्ठित रहना चाहिये हां, भारत की
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy