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________________ १ २३६ ) - ऋग्वेद की भाषा के उन अनेक प्रादेशिक प्रयोगों को ले लिया है जो वहाँ विद्यमान हैं। अतः उसकी भाषा में पर्याप्त प्राचीनता है। अनेक गाथाओं में हमें इस प्रकार वैदिक भाषा के प्रभाव के लक्षण मिलते हैं। उदाहरणतः समूहतासे (गाथा १४) पच्चायासे (१५), चरामसे, भवाममे (३२), आतुमान, सुवानि, सुवाना (२०१), अवीवदाता (७८४) जैसे प्राचीन वैदिक प्रयोग हमें सुननिपात की भाषा में, विशेषतः उमकी गाथाओं की भाषा में, मिलते हैं। इसी प्रकार 'जनेत्वा' के स्थान पर 'जनेत्व' (६९५) और कुप्पटिच्चस्सन्ति (७८४) जैसे प्रयोग भी बिलकुल ऋग्वेद की भाषा के प्रयोग हैं। सुन-निपात की गाथाओं के छन्द भी प्रायः वैदिक हैं। अनुष्टुभ्. त्रिष्टुभ् , और जगती छन्दों की वहाँ अधिकता है और वैदिक छन्दों के ममान गण का बन्धन भी नहीं है । भाषा के समान विचार के माध्य मे भी मुत्त-निपात की प्राचीनता सिद्ध है । वैदिक युग के देवयजनवाद का पूरा चित्र हमें यहाँ मिलता है । उसका वर्णन इतना सजीव है कि वह प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ही लिखा हुआ हो सकता है । भाषा और विचारों में सभी जगह एक निमर्गगत स्वाभाविकता और सरलता मिलती है जो बौद्धधर्म के विकास के प्रथम स्तर का पर्याप्त रूप से परिचय देती है। उसकी प्रभावशीलता भी इसीलिए अत्यन्त उच्चकोटि की है। बुद्धधर्म के नैतिक रूप का बड़ा सन्दर चित्र हमें सुन-निपात में मिलता है। उरगसुत्त में निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग को बताते हुए कहा गया है : यो उप्पतितं विनेति कोध, विसतं सप्पविसं व ओसधेहि । सो भिक्ख जहाति ओरपारं, उरगो जिण्णमिव तचं पुराणं ॥ जो भिक्षु चढ़े क्रोध को, सर्प-विष को औषध की तरह, शान्त कर देता है, वह इस पार (अपने प्रति आसक्ति) और उस पार (दूसरे के प्रति आसक्ति) को छोड़ता है, साँप जैसे अपनी पुरानी केंचुली को । 'साँप जैसे अपनी पुरानी केंचुली को' कैसी सुन्दर उपमा है ! १. देखिये सुत्त-निपात (भिक्षु धर्मरत्न-कृत हिन्दी अनुवाद, प्रथम भाग) को वस्तुकथा में भिक्षु जगदीश काश्यप का 'सुत्तनिपात की प्राचीनता' सम्बन्धी - विवेचन , पृष्ट ३-५
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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