SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१८ ) सम्बोधि प्राप्त करने के अनन्तर ही किये थे, "अनेक जन्मों तक बिना रुके हुए मैं संसार में दौड़ता रहा । इस ( काया - रूपी) कोठरी को बनाने वाले ( गृहकारक ) को खोजते खोजते पुनः पुनः मुझे दुःख-मय जन्मों में गिरना पड़ा । आज हे गृहकारक ! मैंने तुझे पहचान लिया । अब फिर तू घर नहीं बना सकेगा । तेरी सारी कड़ियाँ भग्न कर दी गई। गृह का शिखर भी निर्बल हो गया । संस्काररहित चित्त से आज तृष्णा का क्षय हो गया । " अत्तवग्ग ( वर्ग १२ ) में आत्मोनति का मार्ग दिखाया गया है । इसी वर्ग की प्रसिद्ध गाथा है “पुरुष आप ही अपना स्वामी है, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है ? अपने को भली प्रकार दमन कर लेने पर वह दुर्लभ स्वामी को पाता है ।" लोक- वग्ग ( वर्ग १३ ) में लोक सम्बन्धी उपदेश हैं । वुद्ध-वग्ग ( वर्ग १४ ) में भगवान् बुद्ध के उपदेशों का यह सर्वोत्तम सार दिया हुआ है "सारे पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, अपने चित्त को परिशुद्ध करना -- यही बुद्ध का शासन है । निन्दा न करना, घात न करना, भिक्षु नियमों द्वारा अपने को सुरक्षित रखना, परिमाण जानकर भोजन करना, एकान्त में सोना-बैठना, चित्त को योग में लगाना-यही बुद्धों का शासन है ।" "सुख वग्ग " ( वर्ग १५ ) में उस सुख की महिमा गाई गई है जो धन-सम्पत्ति के संयोग से रहित और केवल सदाचारी और अकिंचनता मय एवं मैत्रीपूर्ण जीवन से ही लभ्य | भिक्षु कहते हैं " वैर-बद्ध प्राणियों के बीच अवैरी होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं । वैर-बद्ध मानवों में हम अवैरी होकर विहरते हैं ! भयभीत प्राणियों के बीच में अभय होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं ! भयभीत मानवों में हम अभय होकर विहरते हैं । आसक्ति युक्त प्राणियों के बीच में अनासक्त होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं ! आसक्ति युक्त मानवों में हम अनासक्त होकर विहरते हैं ।” “पियवग्ग” (वर्ग १६) में यह कहा गया है कि जिसके जितने अधिक प्रिय हैं उसको उतने ही अधिक दुःख हैं । "प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन्न होता है । प्रेम से मुक्त को कोई शोक नहीं, फिर भय कहाँ से ?" "क्रोधवग्ग " ( वर्ग १७) की मुख्य भावना है "अक्रोध से क्रोध की जीतो, असाधु को साधुता से जीतो, कृपण को दान से जीतो, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतो ।” “मलवग्ग” (वर्ग १८) में भगवान् ने कहा है कि अविद्या ही सब से बड़ा मल है
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy