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________________ ( १३० ) और 'विसुद्धिमग्ग' जैसे ग्रन्थों तथा बुद्धघोष आदि की अट्ठकथाओं में भी . उनका बहुल प्रयोग देखते हैं । निश्चय ही पालि साहित्य अपनी उपमाओं के लिये विशेष गौरव कर सकता है। विषय को सुगम बनाने की दृष्टि से ही भगवान् स्वयं उपमाएँ दिया करते थे। दीघ-निकाय के पोट्ठपाद-सुत्त में जनपद-कल्याणी की सुन्दर उपमा उन्होंने दी है। इसी प्रकार स्वानुभव-शून्य पंडितों की पंक्ति. बद्ध अन्धों से उपमा२, अतिप्रश्न करने वाले की उस वाण-बिद्ध व्यक्ति से उपमा जो वाण को निकलवाने का प्रयत्न न कर वाण मारने वाले के विषय में असंगत प्रश्न कर रहा है,३ विषय भोगों के दुष्परिणामों को दिखाने वाली उपमाएँ,४ विमुक्ति-सुख को दिखाने वाली उपमाएँ, आदिअनेक प्रकार की उपमाएँ भगवान् वद्ध के मुख से निकली हैं, जो काव्य की वस्तु नहीं किन्तु उनके अन्तस्तल से निकली हुई अनुभव सिद्ध वाणियाँ हैं। संवादों के रूप में सुत्तों के उदाहरण के लिये दीवनिकाय के अम्बट्ठ-सुत्त, सोणदण्ड-सुत्त, पोट्टपाद-सुत्त, तेविज्ज-सुत्त आदि विशेष द्रष्टव्य हैं। अन्य निकायों में भी संवाद भरे पड़े हैं। पौराणिक आख्यान भी स्त्तों में कहीं कहीं समाविष्ट हैं, जैसे महाविजित का आख्यान दीघ-निकाय के कुटदत्त-सुत्त में, आदि, आदि । उपनिषदों और महाभारत में भी ऐसे अख्यान पाये जाते हैं। संयुत्त-निकाय के भिक्खुनी-संयुत्त में भिक्षुणियों के आख्यान बड़े ही मार्मिक है। सुत्तों की एक बड़ी विशेषता उनकी नाटकीय द्रुतगति एवं क्रियाशीलता भी है। इस दृष्टि से दीघ-निकाय के महापरिनिब्बाण-सुत्त और संयुत्तनिकाय के भिक्खुनी-संयुत्त विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। परिप्रश्नात्मक शैली का जैसा पूर्ण परिपाक सुत्तों में हुआ है, वैसा भारतीय साहित्य में अन्य कहीं पाना असम्भव है। बाद में उनका विकसित रूप ही 'मिलिन्द-पह' में प्रस्फुटित हुआ है, जिसके संवादों को देख कर ही कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने उसके ऊपर ग्रीक प्रभाव की १. देखिये आगे इस सुत्त का विवरण । २. अन्धवेणु परम्परा (अन्धों की लकड़ी का ताँता) चंकि-सुत्तन्त (मज्झिम. २।५।५)। ३. चूल मालुक्य-सुत्त (मज्झिम. २।२।३) । ४. पोतलिय-सुत्त (मज्झिम. २॥१॥४)। ५. सामञफल सुत्त (दीघ. ११२) में ६. देखिये विटरनित्ज : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ३४
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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