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________________ [ १०४ ] कर्ममें लागू पडता है, क्योंकि अन्य सभी कर्म विपाको - दयके सिवाय अर्थात् प्रदेशोंदयद्वारा भी भोगे जा सकते हैं । ५ मरणके सिवाय अन्य अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल यदि निमित्त भी कर्माशय के उद्बोधक होते हैं । ६ मरण के समय अवश्य उदयमान होनेवाला कर्म यु ही है, इस लिये यदि प्रधानता माननी हो तो वह सिर्फ आयुष्कर्म में ही घटाई जा सकती है, अन्य कर्मों में नहीं । ७ गौणकर्मका प्रधानकर्ममें आवागमन होता है यह बात गोल - माल जैसी है । आवापगमनका पूरा भाव संक्रमणविधिको विना जाने ध्यानमें नहीं सकता, इस लिये कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थोंमेंसे संक्रमणका विचार जान लेना चाहिये । सूत्र १५ - सूत्रकारने संपूर्ण दृश्यप्रपंचको विवेकिके लिये दुःखरूप कहा है, इस कथनका नयदृष्टिसे पृथक्करण करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि दृश्यप्रपंच दुःखरूप है सो निश्चयदृष्टि से, व्यवहारदृष्टिसे तो वह सुख दुःख उभयरूप है । इस पृथक्करण की पुष्टि वे सिद्धसेनदिवाकरके एक स्तुतिवाक्यसे करते हैं । उस वाक्यका भाव इस प्रकार है " हे वीतराग ! तूने अनंत भवबीजको फेंक दिया है, और अनंत ज्ञान प्राप्त किया है, फिर भी तेरी कला न तो कम हुई है और न अधिक, तू तो समभाव अर्थात् एक रूपताको ही तारण, धारण ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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