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________________ १ [ १०३] हुए कर्माशयका फल मरणके बाद ही मिलता है। ६ मरणके समय कर्माशयका फलोन्मुख होना यह उसकी प्रधानताका लक्षण है, और उस समय फलोन्मुख न होना उसकी गौणताका लक्षण है । ७ गौणकर्मका प्रधानकर्ममें आवापगमन अर्थात् संमिलित होकर उसमें दव जाना। इनके विषयमें क्रमशः जैनसिद्धांत इस प्रकार है-१ विपाक तीन ही नहीं बल्कि अधिक हैं, क्योंकि वैदिक लोगोंने ही गंगामरणको अदृष्ट विशेपका फल माना है, जो सूत्रोक्त तीन विपाकोंसे भिन्न है । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो कमसे कम ज्ञानावरण आदि आठ विपाक तो मानने ही चाहिये । __२ यह एकान्त नियम नहीं है कि जो कर्मव्यक्ति पूर्वबद्ध हो उसका फल प्रथम ही मिले और पश्चातबद्ध कर्मव्यक्तिका फल पीछे मिले. किन्तु कभी कभी कर्मके वन्धन और फलक्रममें विपर्यय भी हो जाता है। ३ वासना भी एकप्रकारका कर्म अर्थात् भावकर्म है अतएव वासना और कर्म ये दो भिन्न तत्त्व नहीं हैं। ४ एकभविकताका नियम सिर्फ आयुष्कर्ममें ही लागू पड सकता है । ज्ञानावरणादि अन्य कर्म अनेकभविक भी होते हैं। प्रारब्धता-विपाकवेद्यता-का नियम भी सिर्फ आयु
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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