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________________ Kho [१०५] किये हुए है।" इसमें जो अनंत भववीजका फेंकना कहा गया है सो संसारको निश्चयदृष्टिसे दुःखरूप माननेसे ही घट सकता है। सूत्र १६---इसमें भाष्यकारने सृष्टिसंहार क्रमको सांख्यासिद्धांतके अनुसार वर्णन किया है। सांख्यशास्त्र सत्कार्यवाद मानता है अर्थात् असत् का उत्पाद और सत् का प्रभाव नहीं मानता । इसपर उपाध्यायजी कहते हैं किउक्त सिद्धांत एकांतरूप नहीं मानना चाहिये, क्योंकि एकांतरूप मान लेनेमें प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका अस्वीकार करना पडता है, जिससे कार्यमें अनादि-अनंतताका प्रसंग आता है जो इष्ट नहीं है। इसलिये उक्त दोनों अभाव मान कर कथंचित् असत् का उत्पाद और सत् का अभाव मानना चाहिये । ऐसा मान लेनेसे वस्तुमात्रकी द्रव्यपर्यायरूपता घट जायगी, और इससे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप जो वस्तुमात्रका त्रिरूप लक्षण है वह भी घटित हो जायगा। सूत्र ३१--सूत्रकारने जाति, देश, काल और समययाचार व कर्त्तव्य-के बंधनसे रहित अर्थात् सार्वभौम ऐसे पॉच यमोंको महाव्रत कहा है । इस विषयमें जैनप्रक्रिया बतलाते हुए उपाध्यायजी कहते है कि-सर्व शब्दके साथ अहिंसादि पोच यमोंकी जब प्रतिज्ञा की जाती है तब वे महाव्रत कहलाते हैं. और देश शब्दके साथ जब उनकी प्रतिज्ञा ली जाती है तब वे अणुव्रत कहलाते हैं ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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