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________________ मुझे अलवर जाने का अवसर मिला । साहित्यिक चर्चा के प्रसङ्ग में पुष्पाञ्जलि के प्रकाशन की बात उनके सामने आई और उन्होंने इसके लिये आर्थिक सहयोग देने का निश्चय प्रकट किया और किसी हद तक सहयोग दिया भी। इसी प्रकार इस सिलसिले में जयपुर के साहित्य एवं कला प्रेमी रईस ठाकुर श्यामकरणसिंहजी से भी प्रसङ्गवश चर्चा हुई और उन्होंने भी इसके प्रकाशन में रुचि दिखलाई और कुछ आर्थिक सहयोग भी दिया। तदनुसार उक्त पुस्तक के प्रकाशन की सारी तैयारियां पूरी करली गई और कागज आदि की उपयुक्त व्यवस्था भी आवश्यकतानुसार बिठाली गई । किन्तु संयोगवश इसी बीच नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ के दोनों मालिकों में आपसी वटवारा छिड़ गया. और प्रेस में भारी अव्यवस्था फैल गई। प्रेस मालिकों के साथ अपने पुराने संबन्धों को देखते हुए हमारे सामने चुप रहने के सिवा कोई विकल्प न रहा। इसके कारण प्रकाशन तो रुक ही गया साथ ही आर्थिक हानि भी उठानी पड़ी जो कि अनिवार्य बन गई थी, और प्रकाशन का विचार कुछ समय के लिए स्थगित कर देना पड़ा । राजस्थान-पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर, द्वारा पुष्पाञ्जलि का प्रकाशन . सन १६४६ मे जव संस्कृत कालेज जयपुर मे साहित्य के व्याख्याता (Lecturer) के पद पर मेरी नियुक्ति हुई, तो मुझे इस ओर ध्यान देने का पता अवसर मिला । मैने द्विवेदीजी के कतिपय अप्रकाशित ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ आवश्यक सहयोग दिये जाने के सम्बन्ध मे राजस्थान सरकार से प्रार्थना की। इस प्रसंग में संस्कृत कालेज के तत्कालीन कार्यवाहक प्रिंसिपल और राजस्थान संस्कृत पाठशालाओं के निरीक्षक श्री के० माधवकृष्ण शर्मा एम० ओ० एल० महोदय ने इस ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने में अपना जो सहयोग दिया उसके लिये उन्हें धन्यवाद देना संपादक अपना कर्तव्य समझता है। . . '
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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