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________________ द्विवेदीजी के ग्रन्थों के प्रकाशन का उपक्रम द्विवेदी जी के अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करने का विचार एक अर्से से चल रहा था। इधर इस सम्बन्ध में कुछ साहित्य-सेवी मित्रों और सहयोगियों ने भी यथासमय आग्रहपूर्ण अनुरोध किये । किन्तु परिस्थितियां कुछ ऐसी विषम चल रही थीं कि इस विचार को मूर्तरूप दे सकना संभव न होसका । कारण यह था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में कुछ ऐसे परिवर्तन आये कि यहां का सामाजिक और आर्थिक ढांचा एकदम बदल गया । या यों कहिये कि जनतन्त्र युग का प्रारम्भ होने के साथ साथ समाज की प्रवृत्तियों मे क्रान्तिकारी परिवर्तन होगया । संस्कृत भाषा और उसके साहित्य की गतिविधि यों तो पहले भी विशेष आशाप्रद न थी, किन्तु फिर भी इतनी निराशाजनक स्थिति न वनी थी। स्वराज्य के मिलते ही कुछ ऐसी हवा चली कि संस्कृत की ओर जनता की जो थोड़ी बहुत अभिरुचि थी उसको भी धक्का लगा और वह शिथिल पड़ती गई। यहां तक कि संस्कृत के प्रति समाज में निराशा का वातावरण छागया। ऐसी अवस्था में, संस्कृत साहित्य के प्रकाशन की कौन कहे, संस्कृत का नाम लेते ही लोगों के मुख पर उपेक्षा और उदासीनता के भाव स्पष्ट झलकने लगते। वैसे अवसर आने पर संस्कृत की सहानुभूति मे दिल खोलकर लम्बी शब्दावलियों द्वारा प्रशंसा के पुल बांधने का क्रम अवश्य चलता रहा । किन्तु सहयोग करने का प्रश्न सामने आते ही प्रकारान्तर से नकारात्मक उत्तर मिलने के सिवाय कोई परिणाम न निकला । इधर संस्कृत पुस्तकों के प्रकाशकों से जब इस विषय में बातचीत चलाई तो उनमें भी आवश्यक उत्साह का अभाव पाया । कारण, आज के व्यावसायिक युग मे उनका एक मात्र लक्ष्य पुस्तक प्रकाशन द्वारा अधिक से अधिक आर्थिक लाभ लेना है । स्कूलों और कालेजों की पाठ्य-पुस्तकों और उनके नोट्स को जो कि बाजार में धड़ल्ले से बिक जाते हैं, छोड़कर, संस्कृत साहित्य के स्वतन्त्र प्रकाशन की ओर वे भला ध्यान ही क्यों देने लगे ? क्योंकि इन प्रकाशनों में उन्हें उस अनुपात में लाभ होने की संभावना कहां १ अतएव मैंने सोचा 'कि इस समय इसको चर्चा चलाना ही निरर्थक है इसलिए अभी कुछ समय तक और चुप रहा जाय, और अनुकूल परिस्थिति की प्रतीक्षा की जाय । इधर कुछ ही दिनों बाद, वर्तमान अलवर-नरेश महाराज श्री तेजसिंहजी महोदय, जो कि भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रेमी नरेश हैं, के आमन्त्रण पर
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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