SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ परिमल-पुष्पाञ्जलि की रचना की प्रौढता एवं आगमोक्त अर्थों की गम्भीरता को देखते हुए यह आवश्यकता प्रतीत हुई कि इसके साथ एक व्याख्या का होना भी आवश्यक है। जिससे कि स्तोत्रों के प्रतिपाद्य अर्थों का अनुगम सरलता से हो सके । तदनुसार स्तोत्रगत अर्थों के स्पष्टीकरण के लिए 'परिमल' नामक विवृति भी इसके साथ लगादी गई है। परिमल को लिखने में यह ध्यान रखा गया है कि यथासंभव सरल और सुबोध शैली में, साथ ही संक्षेप में, आवश्यक विवरण दिया जाय ताकि अनावश्यक कलेवर-वृद्धि से बचा जा सके और पाठकों को किसी प्रकार की अरुचि भी न हो। क्योंकि लम्बी-चौड़ी व्याख्याओं को पढने वालों की संख्या प्रायः कम ही हुआ करती है और अधिकतर, पढने वालों को भी इससे अरुचि होने लगती है । अतएव इन सभी बातों को दृष्टि में रखकर ही यह परिमल लिखा गया है। फिर भी, विषय गांभीर्य के कारण कुछ स्तोत्रों में अपेक्षित स्पष्टीकरण आवश्यकतानुसार करना ही पड़ा है। इसके सिवा, प्रकरणागत दर्शन-संवन्धी विचारों को अधिक न फैलाकर केवल नपे तुले शब्दों में सारभूत विश्लेषण करके ही छोड दिया है। ताकि सिद्धान्तभूत बातों का परिचय भी होजाय, और व्यर्थ के वितण्डावाद और ननु-नच एवं किन्तु परन्तु के झमेलों और शाखा-प्रशाखाओं से भी वचा जाय । इसी प्रकार जहां आवश्यकता समझी गई है वहां प्रमाण के रूप में उस विषय के सहायक और मान्य ग्रन्थों का उल्लेख, तथा उनके कुछ चुने हुए उद्धरण भी दे दिये गये हैं। इतना सब होते हुए भी विवृति-लेखक अपने प्रयास में कहां तक सफल हो सका है यह देखना विद्वानों का काम है। मैं तो यहां इतना ही कहना चाहूंगा कि जहां तक मूल रचना में वर्णित अर्थों की योजना और उपयोगिता का संवन्ध है दोनों ही बातों को लक्ष्य मे रखकर ही यह प्रस्तुत की गई है। यदि इससे स्तोत्र साहित्य के रसिकों को कुछ भी संतोष हुआ, तो यह प्रयास सफल समझा जायगा।
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy