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________________ ३३ देववृक्षों में गिना जाता है, और इसलिए उक्त वृक्ष का यह चबूतरा ही चण्डीजी के रूप में पूजा जाने लगा। अठारहवीं सदी के मध्य से इस स्थान की महिमा वढने लगी, और वह बहुत दूर २ तक फैल गई । स्थानीय वृद्धों के मुख से सुना जाता है कि विद्यानाथ नाम के कोई तपस्वी महात्मा भ्रमण करते हुये किसी समय इस अरण्य प्रदेश में आगये थे । उन्होंने 'सरिद्गर्भस्तडागः सिद्धिभूः ।' अर्थात् नदी के मध्य में यदि कहीं प्राकृतिक तालाब बन जाय तो वह सिद्ध स्थान होता है। इस आगमोक आधार पर उन्होंने इस प्रदेश को 'सिद्धपीठ' मानकर यहीं पर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही दिनों में उन्हें कई आश्चर्यजनक चमत्कार दृष्टिगोचर हुये और कुटी बनाकर वे यहीं रहने लगे। एक अर्से तक यहां रहकर उन्होंने आध्यात्मिक साधना की, किन्तु शनैः शनैः जब यहां जन-संचार बढ़ने लगा तो वे इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये, और दुबारा फिर यहां नहीं लौटे। ___ इस प्रान्त में यह प्रसिद्धि भी है कि सर्वप्रथम उक्त महात्मा के समय में ही इस सरोवर में कमलपुष्पों की उत्पत्ति हुई थी, जिन्हें वे भगवती को चढाया करते थे । किन्तु उनके चले जाने के बाद इन पुष्पों का उद्गम स्वतः बन्द होगया । अब तो वहां कमलपुष्पों की कोई चर्चा ही नहीं रह गई है। ___कालक्रम से, चण्डीजी का महत्व दूर-दूर तक फैलता गया और जनता अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के निमित्त इस ओर अधिकाधिक आकृष्ट होती गई। कुछ ही समय बाद, जब यहां आने वाले यात्रियों की संख्या हजारों तक पहुँचने लगी, तब यहां प्रतिमास अमावस्या के दिन एक मेला भरने लगा और इस प्रकार नगर तथा देहात के सभी श्रेणी के लोग अपने अपने अभीष्ट को लेकर यहां आने लगे, और प्रायः सफल मनोरथ हुये । जहां तक ज्ञात हुआ है, उक्त महात्मा साधक के यहां निवास करने के बाद से ही इस स्थान का महत्व दिन प्रतिदिन बढता गया और हजारों दर्शनार्थी यहां आने लगे। इनके समय तक यहां कोई मूर्ति न थी, केवल चबूतरे के ऊपर ही जनता पत्र-पुष्प चढ़ाया करती थी। वीसवीं सदी के प्रारम्भ में चण्डीजी की प्रेरणा से इसी प्रान्त के एक अन्य तपस्वी महात्मा सरस्वत्यानन्दनाथ देशाटन करते हुये प्रसङ्गवश यहां आ पहुंचे। वे भी विरक्त प्रकृति के एकान्त प्रिय साधक थे । उन्होंने कई वर्ष तक यहां रहकर
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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