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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २८० भट्टारक संप्रदाय [७१८ - ध्यायंति ते सुरनरोरगराजसौख्यं भुक्त्वा भवंति विबुधाः किल सौख्यभाजः ।। (म. ११०) लेखांक ७१९ - दक्षिणमें राजस वादिवांकुश चंद्रसुकीर्ति ये चिद्घन री। दिगंबरमें यह सोभित वादि जु मानत पंडित चिद्घन री ॥ २५ (म. ४९) लेखांक ७२० - कर्णाटक देश मनोहर सुंदर सोभत नरसिंहपाटन रे । कावेरीके तीर जु आवत संघहे त्रास पड्यो सब विद्धनु रे । चंद्रकीर्ति सुवादि विकटहि जानिके मान भट्टसुपंडित बोलतु रे । बोलत लक्ष्मण वादके कारण भट्ट सुकृष्ण ये आवतु रे ।। १९ प्रथम सुवचनमें वादि जु खंडत कृष्णसुभट्ट ये हारतु रे ।। न्यायके युक्तिसु बोलत वादि रे चंद्रसुकीर्ति जय पावतु रे ॥ वाजत ढोल तबल्ल निसानसु मानत भूपति सिर आनतु रे । काष्ठासंघ दिवाकरकु येह देखन आवत चारुसुकीर्तिय रे ॥२० (म. ४९) लेखांक ७२१ - चौरासी लक्षयोनि विनती (म. काष्ठासंघ विख्यात प्रसिद्ध गच्छ नंदीतट सार। विश्वसेन विश्वाभरण विद्याभूषण गुरु भवतार ॥ श्रीभूषण प्रताप घणो महिमंडल दूजो भान ।। चंद्रकीति तस पट्ट विराजे माने वादी सब आन ।। श्रीगुरुचरण नामी करी विनवे लक्ष्मण जिनराज । हवे कर्मबंध छेदो प्रभु अवर नहीं मुझ काज ।। २९ (म. १५) For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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