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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काष्ठासंघ-लाडबागड--पुन्नाट गच्छ इस संघ के आचार्य पहले पुन्नाट अर्थात् कर्णाटक प्रदेश में विहार करते थे इस लिए इस का नाम पुन्नाट था। बाद में उन का प्रमुख कार्यक्षेत्र लाडबागड अर्थात् गुजरात प्रदेश हुआ इस लिए इस का नाम लाडबागड गच्छ पडा। इसी का संस्कृत रूप लाटवर्गट है। पुन्नाट और लाटवर्गट संघों की एकता (ले. ६३१ ) पर से प्रतीत होती है और इस की पुष्टि (ले. ७४७) से होती है जिस में लाडबागड गच्छ के कवि पामो ने अपना गच्छ पुन्नाट कहा है। पुन्नाट संघ के प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन हैं। आप ने शक ७०५ में वर्धमानपुर के पार्श्वनाथमन्दिर तथा दोस्तटिका के शान्तिनाथमन्दिर में रहकर हरिवंशपुराण की रचना की (ले. ६२२)। इस समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में श्रीवल्लभ, पूर्व में वत्सराज और पश्चिम में जयवराह का राज्य चल रहा था। जिनसेन के गुरु कीर्तिषेण थे। वे पुन्नाट गण के अग्रणी अमितसेन के गुरुबन्धु थे। अमितसेन की गुरुपरम्परा में ग्रन्थकर्ता ने अंगज्ञानी आचार्यों के बाद ३० आचार्यों के नाम दिये ह् । शक ७३५ में कीर्त्याचार्यान्वय के कूविलाचार्य के प्रशिष्य तथा विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति को चाकिराज की प्रार्थना से वल्लभेन्द्र ने।" जालमंगल नामक ग्राम दान दिया। अर्ककीर्ति ने अपना संघ यापनीय नन्दिसंघ तथा पुंनागवृक्षमूलगण कहा है। सम्भवतः पुंनागवृक्षमूलगण पुन्नाटसंघ का ही एक रूपान्तर है ( ले. ६२३ )। पुन्नाट संघ के आचार्य हरिषेण ने संवत् ९८९ में वर्धमानपुर में विनायकपाल के राज्यकाल में बृहत् कथाकोष की रचना की (ले.६२४)। मौनि भट्टारक-हरिषेण-भरतसेन - हरिषेण ऐसी इन की परम्परा थी। ११७ यह संभवतः राष्ट कूट राजा गोविन्द (तृतीय) का उल्लेख है जिन की ज्ञात तिथियां ७८३-८१४ ई. हैं । ११८ ये रघुवंशीय प्रतिहार राजा थे । सन् ९३१ का इन का एक उल्लेख मिला है। वर्धमान पुर का वर्तमान रूप वढयाण-मतान्तर से बदनावर सौराष्ट्र है। For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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