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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २५८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भट्टारक संप्रदाय लाडबाड संघ के आचार्य जयसेन ने संवत् १०५५ में सकलीकरहाटक ग्राम में धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ लिखा ।" इन की गुरुपरम्परा धर्मसेन - शान्तिषेण-गोपसेन - भावसेन - जयसेन इस प्रकार थी। इन के मत से इस संघ का आरम्भ मेदार्य की उग्र तपश्चर्या से हुआ था (ले. ६२५) जो खंडिल्य ग्रामके पास निवास करते थे । इस संघ के अगले आचार्य महासेन थे । आप ने प्रद्युम्नचरित नामक काव्य की रचना की। मुंजराज तथा सिन्धुराज के मन्त्री पर्पट ने आप का सन्मान किया था । जयसेन - गुणाकरसेन -- महासेन ऐसी आप की परम्परा थी (ले. ६२६ ) । इस के अनन्तर आचार्य विजयकीर्ति का उल्लेख मिलता है। कछवंश के विक्रमसिंह ने संवत् १९४५ में एक जिनमन्दिर के लिए कुछ जमीन दान दी। यह मन्दिर विजयकीर्ति के शिष्य दाहड, सूर्पट, कूकेक आदि ने मिल कर बनाया था। इस दान की विस्तृत प्रशस्ति विजयकीर्ति ने लिखी (ले. ६२७ ) इन की गुरुपरम्परा देवसेन कुलभूषण - दुर्लभसेनअम्बरसेन आदि वादियों के विजेता शान्तिषेण विजयकीर्ति इस प्रकार थी । पट्टावली में उल्लिखित आचार्यों में महेन्द्रसेन पहले ऐतिहासिक व्यक्ति प्रतीत होते हैं ।" इन ने त्रिषष्टिपुरुषचरित्र लिखा तथा मेवाड में क्षेत्रपाल को उपदेश दे कर चमत्कार दर्शाया (ले. ६२८ ) । महेन्द्रसेन के शिष्य अनन्तकीर्ति ने चौदहवे तीर्थंकर का चरित्र लिखा ( ६२९ ) । ११९ पं. परमानन्द ने इन्हें झाडवागड संघ के आचार्य कहा । यहाँ स्पष्टतः ल की जगह गलती से झ पढ़ा गया है। झाड़बागड नाम के किसी संघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता । १२० इन के पहले अंगज्ञानी आचार्यों के बाद क्रम से विनयधर, सिद्धसेन, वज्रसेन, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, अकलंक, वीरसेन, सुमतिसेन, जिनसेन, वासवसेन, रामसेन, जयसेन, सिद्धसेन तथा केशवसेन का उल्लेख है । For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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