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________________ दर्शन ६३ लिखाने आया। कुछ तथाकधित भक्तो ने उसका मजाक किया- "सूरदास । तुम्हें दिखता तो नहीं है, तुम क्यो चल रहे हो?" प्रम को सुनकर उस अन्धे ने बड़ा मधुर और दार्शनिक उत्तर प्रस्तुत किया। उसने कहा "मित्र में उन्हें देखू या न दे पर वे तो मुझे देखेंगे न।" महापुरुष और अन्य पुरुष में यही तो अन्तर है। अन्य पुरुष हमारे देखने पर भी देखा-अनदेखा करते हैं। परम पुरुष या महापुरुष वही है, हम उन्हें देखे या न देखे वे हमें अवश्य देखते हैं। वे अपनी अनन्त कृपादृष्टि से हमे सीचते हैं। उनका हमारी ओर देखना ही वास्तविक दर्शन है। मैं इसी दर्शन के लिए तुम्हारे साथ सयुक्त हो रहा हूँ। गुजरात के एक भक्त कवि ने दर्शन की विशिष्ट परिकल्पना प्रस्तुत की हैं किएक बार एक भक्त महापुरुष मे दर्शन देने की प्रार्थना कर रहा था "आखनी मामे आख तो माड़ो। अमृत नी रसधार झरे छे, आवो-आवो पासे आवो। तमने जोई आख ठरे छे।" भक्त की अत्यन्त मनुहार स्वीकार करते हुए परम स्वरूप वहाँ प्रकट होते हैं। दर्शन करने के लिए आया हुआ भक्त उन्हें देखकर आँखें दद कर देता है। आप कैसे दर्शन करते हो, आँख बन्द कर या खोलकर? अक्सर दर्शन करते समय हम अपनी आँखों को बन्द कर लेते है। ऐसा क्यो होता है ? आचार्यश्री जिन्हें 'अनिमेष विलोकनीय' कहते हैं उन्हें देखकर हम आँखें क्यो बन्द कर लेते हैं, कभी नहीं सोचा क्या आपने? परम स्वरूप के इस प्रश्न का भक्त के द्वारा दिया उत्तर प्रत्येक भक्त का उत्तर है। उसने भनो । तेरी अनन्त आत्मिक अनुभूति के दर्शन कर इन चर्मचक्षुओं से तेरी अनना-विभूति को झेलकर में इसे अनन्त, आत्म-प्रदेशों में सम्पूर्णत आत्मसात् कर लेता सदन में आपका रूप और आपका यात्मल्य इन दो विशिष्ट शक्तियों का परिचय होता है। मेरी सोरदद होने का मतलद यह नहीं कि में आपका रूप-दरूप सेल नहीं मका। परनो परम स्वरूप आपका वात्सल्य इतना अधिक है जिसे मैं अपने में समा नहीं सका। अत साज मेरी आँखे दर होई। पदि ने कहा है कि'ए सम के तमगर रियायु नहीं, STER तीन मयु नही ।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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