SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षारम् ६२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि पीत्वा - पीकर - कौन (पुरुष) जलनिधे - (लवण) समुद्र के - खारे जलम् - पानी को रसितुम् - चखने के लिए इच्छेत् - इच्छा करेगा अनिमेषविलोकनीयम् शब्द बड़ा Romantic (प्रेमास्पद) है। निमेष अर्थात् आँख की पलके। अनिमेष अर्थात् पलक झपके बिना। विलोकनीय अर्थात् दर्शनीय, देखने योग्य। यहाँ एक ऐसे व्यक्तित्व से हमारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है जिनको पहले शायद कभी नही देखा। और अब जब कभी देख लिया तो फिर पलक झपकी ही नही जाती है। कितना रहस्य भरा है। ऐसे तो भारतीय संस्कृति की प्रत्येक प्रेम गाथाएँ इन शब्दों को बड़ी भावुकता के साथ चरितार्थ करती है। प्रेम की सफल अभिव्यक्ति की चरम-सीमा इन्ही शब्दो मे प्रदर्शित होती है। दिखने वाला और देखने वाला दोनो के प्रत्यक्षीकरण की वास्तविकता को यह प्रकट करता है। समस्त सासारिक प्रेम सम्बन्धो से ऊपर उठे हुए प्रत्येक भक्त कवि ने इस महत्व को उद्घोषित किया है। जैसे एक जगह कबीर कहते हैं "नैनन की करी कोठरि, पुतलि पलग बिछाय। पलकन की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय॥" भक्ति की यह चरम सीमा हमारे इस निज एकान्त साधना मे एक कोलाहल उत्पन्न करती है कि हम ही जिनको अनिमेष पलको से देखते रहे, वे क्या करते हैं ? जो दिखते हैं वे देखते हैं या नही? उनके अनन्त-आत्मदर्शन मे हम कहॉ छिपे हैं ? दर्शनावरणीय कर्म मे छिपा हमारा निज स्वरूप हम मे ये प्रश्न उठाता है कि१ हम उनको देखे या वे हमे देखे? २ हम उनके दर्शन करें या उनके अनन्त दर्शन मे हम समाहित हो जाय, जिसमे हमारी अनन्त अपूर्व अनुभूति प्रकट हो जाय? प्रस्तुत श्लोक भेद का अभेद कराता है। भेद मे प्रश्न होता है, अभेद होने पर यह सारा भेद मिट जाता है। परम और हम भिन्न नही अभिन्न हैं। परमात्मा से विभक्त हैं तब तक भिन्न है। भक्त हो जाने पर अभिन्न हैं। भक्ति की प्रारभिकता मे (अभेद से पूर्व) दोनों का एक दूसरे को देखना भी प्रिय-दर्शन है। एक भक्त ने दर्शन की इस विशिष्ट शैली को प्रस्तुत करते हुए बडा रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक बार कुछ यात्री किसी विशिष्ट महापुरुष के दर्शन हेतु यात्रा की योजना बना रहे थे। यात्रियो के नामो का लेखन हो रहा था। एक अन्धा भी अपना नाम
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy