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________________ ४८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि दुरितानि -- पापो को, अपराधो को हन्ति - हनन करती है, नष्ट करती है सहस्रकिरण - सूर्य - दूर (है फिर भी उसकी) प्रभा एव -- कान्ति ही पद्माकरेषु - सरोवरो मे जलजानि - कमलो को विकासभाजि - विकसित, प्रफुल्लित कुरुते - कर देती है। दूर-दूर आकाश मे रहा हुआ सूर्य किरणो को सर्वत फैलाता है। उनमे से कुछ किरण सरोवर के बन्द कमलो को खोल देती हैं। इस उदाहरण द्वारा यहाँ परमात्मा के प्रभाव की अद्भुतता प्रकट की गई है। हे परमात्मा! तेरे भक्ति प्रभाव के कारण यह तेरा स्तोत्र शब्द, अर्थ, रचना और भाव आदि समस्त सम्बन्धित दोषो से रहित हो रहा है, समस्त दोषो का अस्त हो रहा है। भाषा-लालित्य, भाव-प्रधानता, तत्त्व-दुर्बोधता आदि अनेक कारणो से तेरा स्तवन सुगम्य नहीं हो सकता है। फिर कइयो को भक्ति रस के आस्वादन का भी बोध नही होता है। इन सभी दृष्टिकोणों से तेरा यह निर्दोष स्तवन कितना आस्वाद्य और आह्लादजनक हो रहा है। इसका महत्वपूर्ण कारण मेरे ऊपर तेरा अभूतपूर्व प्रभाव है। ___ स्तवन की इन सुगम्यता से अनभिज्ञ यदि तेरी अनुभूत जिदगी के प्रसगो का चिन्तन करे तो भी वह सर्व दुरितो से मुक्त हो सकता है। क्योकि, तत्त्व को पृष्ठभूमि मे रखकर समत्व द्वारा प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थितियो को तुने अनुकूल बनाली है। इसी विशेषता से ही तू सृष्टि का महान तत्त्व है। __ सामान्य व्यक्ति तत्त्व की अगम्यता के कारण अनुकूल को प्रतिकूल बनाता है। तून प्रतिकूलताओ को अनुकूल बनाकर चेतना का विस्तार और विकास किया। तू सिद्धलोक मे मुझसे सात राजुलोक दूर है। अजर, अमर, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अकषायी और अकर्मी है। तेरे गुणो की स्तुति करने वाला मै इस मृत्युलोक पर जन्म-मृत्यु का महायात्रा के चक्कर काट रहा हूँ, फिर भी तेरे स्तति-गान और जीवनकथा-श्रवण का यह अचिन्त्य प्रभाव है कि मेरे पाप-कर्म और अनिष्टो का नाश हो रहा है। भक्त के हृदय की भक्तिभावपूर्वक की उर्मियॉ, स्पदन, तरगे (Vibration) तेरे निरजन, निर्लेप, चैतन्य, सिद्धावस्था तक पहँचकर तेरे वीतरागत्व का स्पर्शकर इस आत्मकमल को विकसित करती हैं। इस प्रकार तू दूर भी है परन्तु तेरी कृपा किरण मर आत्म-कमल को विकसित करती है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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