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________________ २४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि वक्तु गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्ककान्तान् कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या। कल्पान्त-काल पवनोद्धत नक्र-चक्र, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥४॥ गुणसमुद्र। - (हे गुणो के समुद्र।) हे गुणसागर वुद्धया बुद्धि के द्वारा सुरगुरु प्रतिम बृहस्पति के समान अपि कौन मनुष्य? आपके शशाङ्ककान्तान् चन्द्रमा के समान उज्ज्वल-ऐसे, गुणान् गुणो को वक्तु कहने के लिए-कहने मे क्षम समर्थ है ? कल्पातकाल पवनोद्धतनक्रचक्रम् - प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छो का समूह जिसमे ऐसे अम्बुनिधि - समुद्र को भुजाभ्याम् - भुजाओ के द्वारा तरीतुम् - तैरने के लिए क अलम् - कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नही। आचार्यश्री को दो विरुद्ध समुद्र के दर्शन हो रहे हैं। एक है गुणसमुद्र परमात्मा और दूसरा हे विकल्पो से भरा समुद्र। एक है क्षीर समुद्र, दूसरा है लवण समुद्र। क्षीर समुद्र दीखता जरूर हे पर वह दूर नजर आ रहा है, अत क्षीर-अमृत का पान नही कर रहा है। वह क्षीर समुद्र का पान करना चाहता है परन्तु लवण समुद्र मे जहाँ वह खड़ा है, बहुत लम्बा चाडा है, उसे साधक को स्वभुजा से ही पार करना है। कितना विकट है यह कार्य । कितना भयानक हे, कितना विशाल है यह समुद्र ? , सुधर्मास्वामी ने जदूस्वामी को परमात्मा की पहचान कराते हुए समुद्र की उपमा दी 'मे पत्रया अखसागरे वा महोदही वा वि अणतपारे" -सूय अ ६, गा ८
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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