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________________ आत्मा का परिचय १७ और घटनाओ का हो जाना हमारे लिये कोई विशिष्ट वात नहीं है। हालाकि भावावेश में कभी-कभी लगता है कि सतो के ऊपर ऐसे उपसर्ग हमारे सवेदनशील मानस को उद्वेलित अवश्य कर देते हैं, परन्तु घटनाओ को घटनाओ के स्थान पर छोडकर हमे इसे समझना है। "भक्तामर स्तोत्र" को अब हम द्विगुणित रीति से देखेंगे। पार्थिव जगत की दृष्टि से घटनाएं कैम-कसे वर्तुल लाती है और कैसे मानतुगाचार्य घटनातीत होते जाते हैं। दूसरे धगतल पर आध्यात्मिक जगत में जहाँ हम पहुँच जाते हैं तो परमात्मा से भेंट करते-करते अपने आध्यात्मिक विकास की ओर आचार्यश्री कैसे आगे बढ़ रहे हैं। दोनो चीजो को हमे एक गाथ देखता है क्योंकि हम दोनो जगत में जीना चाहते हैं। पार्थिव जगत हमारे सामने ह और आध्यात्मिक जगत की ओर हम आगे बढ़ना चाहते हैं। इन दोनो का सामजस्य स्थापित किये बिना हम आध्यात्मिकता को अपने जीवन से नहीं जोड़ सकते हैं। केवल आध्यात्मिकता में जी भी हमारे लिये कठिन है क्योंकि घटनाएँ सतत हमारे साथ घटित कोती जाती है। हम देख रहे हैं कि प्रभात के प्रथम प्रहर मे ध्यानस्थ आचार्यश्री को लोहे की वेड़ियो फी गृखलाआ मे वाधकर, अवन्तिका के बाहर एक अँधेरी कोठरी रूप कारागृह मे रखा जाता है। वहाँ दो पहरेदार हैं। आचार्यश्री ने अपना ध्यान खोला नहीं। लक्ष्य मे जरूर आया कि एक उपसर्ग से मै बाधित हो रहा हूँ। तत्क्षण ही उन्होने अपने गुरु मत्र के माध्यम से परमात्मा क साथ एकरूपता स्थापित करने का प्रयास किया और उनका प्रयास सफल रहा। यह स्थिति हमारे सामने मौजूद है। आचार्यश्री ने वेडियो के वधन को विस्मृति मे खो दिया और स्वय अन्तध्यान मे लीन हो गये। उनके स्मृति लोक मे पधारे आदीश्वर नाथ। पेडिया के बन्धा टूटते गये। उनके भीतर से एक नाद प्रकट हुआ। वह नाद इतना अद्भुत धा कि वह अश्वाव्य ध्वति मे तरगित होकर प्रकट होता गया। उसकी प्रकटता "भक्तामर स्तोत्र"फे माध्यम से हमारे सामने उपलब्ध है। तं प्रथम जिनेन्द्र प्रणम्य किल अहम् अपि स्तोष्ये" अर्थात् “उन परमात्मा के चरणो प्रणाम करके मैं निश्चय ही स्तुति करूँगा"स्तुति के पहले भक्त ऐसा दढ़ सकल्प करता आ परमात्मा के चरणों के ध्यान में लीन होता है। लीनता आने पर दीनता टूटती है, भेद मिटता है। अभेद से आत्मप्रदेशो में निर्मलता आती है और परम आनदधाम परमात्मा ध्यानालोक मे पधारते हैं। "त" याने "दह" जो धा अव प्रकट हो गया, सामने आ गया। भक्तो चरणो मे मस्तक रखा। परमात्मा ने झुकते मस्तक पर हाथ रखकर कहादास ! म स्तुति करूँगा" ऐसा कहने वाला तू कौन है ? तेरा परिचय दे। मत झुझताया।जीवन का यह प्रथम अवसर था कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी उससे परिचय Tी रहे है। उसने कहा परनाला आपसे क्या परिचय दूं? ससार के किसी भी प्राणी को मेरा आडम्दर भरा परिचय आसानी से दे सस्ता हूँ परन्तु परमात्मा आप तो मर्दत हो। सनर
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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