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________________ श्लोक - ३ ३. आत्मा का परिचय बदलती हुई परिस्थितियाँ, सासारिक घटनाएँ इतनी तीव्रता से, इतने वेग से आती-जाती हैं कि बीच मे रिक्तता की कोई स्थिति ही नही बन पाती है। ये परिस्थितियाँ या घटनाएँ कुछ अनुकूल होती हैं, कुछ प्रतिकूल होती हैं। राग-द्वेष के माध्यम से हम इनमे घुल-मिल जाते हैं। इसे सोचने के लिए बल प्रदान करने वाला आध्यात्मिक जगत् इस पार्थिव जगत से बिलकुल भिन्न है। हा, फिर भी कही कोई ऐसा रेखातट है जहाँ ये दोनो स्पर्श-रेखाएँ एक दूसरी से मिलती हैं। डॉयलॉग करती हैं। ज्यामिति रेखागणित मे जिस तरह स्पर्शरेखा होती है ऐसी स्पर्शिता अध्यात्म के साथ हमारी होती है। ऐसे अवसर को जीवन मे Chance कहा जाता है, मौका कहा जाता है। यदि उस अवसर को हम हाथ से खोते हैं तो बहुत बड़ी उपलब्धि को अपने जीवन से खो देते हैं। घटनाओ के माध्यम से हम देख रहे हैं कि एक ऐसे क्षेत्र मे मानतुगाचार्य का प्रवेश हुआ है जिस क्षेत्र मे सिर्फ मानतुगाचार्य का ही नही सम्पूर्ण जैन धर्म का विरोध चल रहा था। अवन्तिकानरेश के एक मन्त्री ने मानतुगाचार्य को आमन्त्रण दिया था कि आप मेरी नगरी मे पधार कर किसी न किसी प्रकार जैन धर्म, जैन शासन का कुछ न कुछ प्रभाव इस क्षेत्र मे पडे, ऐसा कुछ कीजिए। और विनती को मान्य करते हुए मानतुगाचार्य अवन्तिका नगरी मे पधारे। मैने आप से पहले ही कहा था कि प्रभात के प्रथम प्रहर मे उनका पदार्पण हुआ था। आते ही सत अपने नियमानुसार ईर्यापथिकी क्रिया मे लगते हैं। ईर्यापथिकी साधना मे तल्लीन आचार्यश्री को राजा किस कारण से बदी बनाते हैं, यह जानना बड़ा महत्वपूर्ण है। राजा का यह मानना था कि जब मेरी सभा को मै सम्बोधित करे तो सभा के सभी मन्त्री मेरे सामने होने चाहिये। उस समय एक मन्त्री के वहाँ नही रहने से पूछताछ करने पर पता चला कि कोई जैन सन्त आ रहे हैं, उनकी अगवानी करने के लिये, उनका स्वागत करने के लिए वे वहाँ गये हैं। बस मात्र इतनी ही घटना से दूसरे मत्रियो ने राजा के कान भरे कि सन्त का सम्मान तो राज्य की ओर से होना चाहिए। लगता है, मन्त्री कुछ न कुछ राजनीति खेल रहे हैं। इस प्रकार के समाचार सुनकर महाराजा भोज गुरु को राजसभा में । बुलाते हैं पर सत वहाँ पधारते नही हैं। अपने नियमानुसार ईर्यापथिकी साधना मे लीन हैं और उनको उसी निश्चलता मे उठाकर कैदखाने मे बद कर दिया जाता है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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