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________________ १० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि न काला है, न नीला है, न लाल है, न पीला है और न सफेद है। (वह) न सुगन्धमय है, न दुर्गन्धमय है। (वह) न तीखा है, न कडुवा है, न कषैला है, न खट्टा है, न मीठा है। (वह) न कठोर है, न कोमल है, न भारी है, न हलका है, न ठण्डा है, न गर्म है, न । चिकना है, न रूखा है। (वह) न लेश्यावान है, न उत्पन्न होनेवाला है, उसको किसी मे आसक्ति नहीं है। (वह) न स्त्री है, न पुरुष है और न इसके अतिरिक्त (नपुसक) है। (वह) ज्ञाता है, संज्ञा है-(सर्वत चैतन्यमय है।) (उसके लिए कोई) तुलना नही है, (वह) एक अमूर्तिक सत्ता है। अत परमात्मा को पहचानने के लिए, पाने के लिए हमे अपनी देहातीत, इन्द्रियातीत अवस्था तक पहुंचना होगा। प्रारम्भ मे कहा जा चुका है कि स्तोत्र मे "स्तवन" और "स्तुति" दोनो होते हैं। "भक्तामर स्तोत्र" इस व्याख्या को सिद्ध करने में बहुत अधिक सफल रहा है। प्रथम दो श्लोको मे परमात्मा का परिचय है। तीसरे श्लोक मे भक्त स्वय का परिचय देता है। और आगे दोनो के परिचयो की भेद-रेखा का पूर्ण विराम है। अभेद की प्रयोगशाला मे प्रवेश है। इस प्रकार मोक्ष-मार्ग मे प्रवृत्तमान, परम वीतराग परमात्मा के आश्रयवान् और हम सर्व की स्वरूप प्राप्ति मे परम प्रेरणा रूप मानतुगाचार्य के हृदय मे प्रभात के प्रथम प्रहर मे पधारे, परम स्वरूप को प्राप्त, परम परित्राता परमात्मा। बधन की वेदना विस्मृति मे खो गई। स्मृतिलोक मे पधारे आदीश्वरनाथ। तात्विक सबध का प्रारभ हुआ। आत्मप्रदेशो मे निर्मलता आ गई। अनाहत नाद मे स्तोत्र का सर्जन हुआ। नाद अश्राव्यध्वनि मे उद्भूत होता गया। उद्भूतता भाषा मे प्रकट हुई भक्तामर-प्रणतमौलि-मणिप्रभाणामुद्योतकं दलित-पापतमो-वितानम्। सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुग युगादावालम्बन भवजले पतता जनानाम् ॥१॥ यसस्तुतः सकलवाड्मयतत्त्वबोधादुद्भूत-बुद्धि-पटुभिःसुरलोकनाथैः। स्तोत्रैर्जगत्रितय-चित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि त प्रथम जिनेन्द्रम् ॥२॥
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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