SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि मंत्र-यत्र - ऋद्धि आदि सबका काम उनके अधिष्ठाता देव को सिद्ध कर उनसे अपनी मनोकामना को पूर्ण करवाना है । भक्तामर स्तोत्र मे परम आराध्य को अधिष्ठान के रूप मे स्वीकार कर समापत्ति का सार्थक प्रयोग बताया गया है । मत्र से गर्भित इस स्तोत्र स्तुति से भी अधिक नमस्कार को महत्व देकर साधक को पुण्य के महापुजा स्वामी बनाया गया है। इस स्तोत्र का एक-एक अक्षर ही महामत्र है। इसके लिए स्वतंत्र रूप से मत्र को जोड़ करके मत्र का आकर्षण बनाये रखने का कारण मात्र तत्कालीन परिस्थिति की विवशता ही रही होगी । जो एक महान मत्र है या फिर ऐसा कहें अनेक मत्र शास्त्र जिसमे प्रतिष्ठित हैं ऐसा यह स्तोत्र महापुण्य का पुज है। इसके अक्षर-अक्षर मे मन्त्रत्व ध्वनित होता है । यह अनुभवसिद्ध है कि सपूर्ण भावो के साथ नाभि से उत्थित स्वर युक्त शब्द महापुरुषो के योग से महामंत्र तत्र का स्वरूप या साधन बन जाता है । भक्तामर स्तोत्र बिना किसी बाधा के इस प्रमाणोपेत पूर्ति का आधार है। इसके प्रत्येक अक्षर के उच्चारण मे मत्र के आन्दोलन उत्पन्न करने की क्षमता है। इस आन्दोलन से विशिष्ट वातावरण और विशुद्ध वायुमंडल का निर्माण होता है। भक्तामर स्तोत्र की मूल सरचना के साथ अन्य किसी भी पद्धति का समावेश नही हो पाता है। न तो स्तोत्रकार को किसी भी देवी-देवता को आव्हान करना पडा है, और न किसी पदार्थ विशेष से यत्र-तत्र के रूप मे लोगो को आकर्षित करने का उपाय अपनाना पडा है। अपने विशुद्ध चित्त तत्र मे परमानदस्वरूप परमात्मा का ध्यान कर समस्त विकृतियो से रहित हो जाना, यही इस स्तोत्र का परमार्थ है, सफलता का रहस्य है । परन्तु समय पर इतिहास करवट बदलता है । मानवीय अभीप्साये अभिव्यक्ति का रूप लेने के लिये अन्य कई आकर्षण के आयामो से जुड़ती रहती हैं। उनकी पूर्ति के लिये स्तोत्र से अतिरिक्त ऋद्धि चाहिये, मत्र चाहिये, यत्र चाहिये, तत्र चाहिये, देवी- देवता का आव्हान चाहिये । तरह-तरह की वृत्तियो द्वारा उपलब्ध विविध प्रकार के यत्र आज इस स्तोत्र की महानता का कारण बन रहे हैं। यत्र के सम्बन्ध मे षट्खडागम के चतुर्थ खड मे " वेयणमहाधिकारे कहि अणियोगद्दार" नामक अधिकार मे ४४ महाऋद्धिया आती हैं । यत्रो मे इन्ही महाऋद्धियो को प्रमुखता देकर यत्र निर्माण की एक प्राचीन पद्धति रही है । षट्खडागम के मत्र ४४ हैं परन्तु इन्ही ४४ पर से ४८ यत्र बनाये गये हैं । षट्खडागम दिगम्बर मान्यतावाला ग्रन्थ है और इनकी सख्या विवरण मे ४८ पद्य मान्य हैं । अत सभाव्य मान्यता के अनुसार यह किसी दिगम्बर मुनि या आचार्य से प्रणीत होने चाहिये । इन ऋद्धिसूत्रो के साथ कुछ बीज मत्र भी जोड दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त हरिभद्रसूरिजी म सा की ओर से भी एक अलग ही पद्धति से ४८ * त्र उपलब्ध होते हैं। हरिभद्रसूरिजी महाराज कौन से हैं? इसका निर्णय दुरूह है, परन्तु
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy