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________________ १३८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि यदि एक ही प्रकार की बिजली आमने सामने आती है तो एक दूसरे से मिलती नहीं पर अलग होकर हटना चाहती है और यदि परस्पर विरोध वाली हो तो दौड़कर मिलना चाहती है। यदि मनुष्य का सिर दक्षिण की ओर है तो सिर की धनात्मक विद्युत् तरगे और दक्षिणी ध्रुव की ऋणात्मक विद्युत् तरगे एक दूसरे से समायोजन स्थापित कर मिलती हैं। परन्तु, यदि मनुष्य का सिर उत्तर मे हो तो सिर का धनात्मक ग्रहण और उत्तर दिशा की धनात्मक बिजली तरगे हट जाएँगी, परिणामत व्यक्ति रोगो से ग्रस्त हो सकता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु के समय व्यक्ति को उत्तर की ओर सिर कर भूमि पर लेटाया जाता है। ऐसा करने से प्राण सुगमता से निकलते हैं। जब बिजली की गति पर हो जाती है तब वह भूमि मे शीघ्र उतर जाती है। भूमि बिजली को त्वरा से अपनी ओर खीच लेती है। राग और द्वेष इन बिजली तरगो की तरह आमने सामने आकर एक दूसरे मे सामजस्य स्थापित कर लेते हैं। इससे हमारे वीतराग भाव बलात् विस्थापित हो जाते हैं। यह टकराव भयकर है इससे दुर्भावनाओ की वाडवाग्नि उत्पन्न होती है जो सर्वनाश का खतरा बन जाती है। आत्मा रूपी यात्री वीतराग का स्मरण कर इसे पार कर सकता है। आगे कहते हैं उद्भूतभीषण-जलोदर-भारभुग्ना , शोच्या दशामुपगताश्च्युतजीविताशा । त्वत्पाद-पङ्कज-रजोऽमृतदिग्धदेहा मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपा ॥४५॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना - उत्पन्न हुए भयकर 'जलोदर' के भार से या वजन से झुके हुए शोच्याम् शोचनीय (चितायुक्त) दशाम् अवस्था को उपगता प्राप्त च्युतजीविताशा जिन्होने जीवन की आशा छोड़ दी हो ऐसे त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा - (और) आपके पाद-पद्मो की रज (धूलि) रूपी अमृत से लिप्त कर लिया है अपने शरीर को जिन्होने ऐसे मा मनुष्य मकरध्वजतुल्यरूपा - कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले भवन्ति - हो जाते हैं।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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