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________________ ११६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___अब और आगे बढ़े-कहते है-हे परमात्मा। ऐसे इस भावासन पर आपके विराजने से मेरा नाभिमडल रूप सिहासन अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। अब यहाँ से उठने वाली विविध भावनाओ वाली किरणो की शिखा आपमय होकर सपूर्ण चेतना मे व्याप्त हो रही है। प्रभु! सम्पूर्ण आत्मप्रदेश पवित्र हो रहे हैं। सिहासन पर परमात्मा के प्रतिष्ठित होते ही उन पर शुभ्र चॅवर दुलाये जाते हैं। मानस चक्षुओ द्वारा इन चॅवरो का ध्यान आते ही मुनिश्री के मुह से निकला कुन्दावदात-चलचामर-चारु-शोभ, विभ्राजते तव वपु कलधौतकान्तम्। उद्यच्छशाङ्क-शुचिनिर्झर-वारिधार मुच्चैस्तट सुरगिरेरिव शातकौम्भम्॥३०॥ कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभम् - कुन्द नामक पुष्प के समान अत्यन्त शुभ्र दुरते हुए चॅवरो के कारण सुशोभित कलधौतकान्तम् - स्वर्ण के समान कान्तिवाला तव वपु - आपका शरीर उद्यच्छशाइशुचिनिझरवारिधारम् - उदीयमान चन्द्रमा के समान धवल शुभ्र-श्वेत जलप्रपात की धारा जहा गिर रही है ऐसे सुरगिरे - सुमेरु पर्वत के शातकौम्भम् - स्वर्णिम् उच्चस्तटम् - उन्नत तटो के समान विभ्राजते - शोभा देता है। हे परमात्मा। आपका स्वर्णिम देह दुरते हुए चमरो से उसी भॉति शोभा दे रहा है जैसे स्वर्णमय सुमेरु पर्वत पर दो निर्मल जल के झरने झर रहे है। परमात्मा। आपकी आत्मा मे परम शात आनद का एक झरना निरन्तर बह रहा है। उस अखड स्रोत मे मेरी समस्त भाव रश्मिया आत्म विभोर हो रही हैं। हे परम स्वरूप आज अत्यन्त भावपूर्ण शुभ्र भावयुक्त नमस्कार-रूप चँवर ढुला रहा हूँ। तेरे चरणो में झुककर भावों की गहराई मे उतरता हूँ और पुन ऊपर उठकर अपने उच्च शुद्ध निजस्वरूप का दर्शन करता हूँ। चमर के साथ ही देदीप्यमान तीन छत्रो के द्वारा परमात्मा के तीनो जगत के प्रति रहे परमेश्वरत्व को प्रकट किया जा रहा है छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्तमुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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